देश के सात राज्यों में सामान्य रूप से बिकने वालीं 27 दवाइयां क्वालिटी टेस्ट में मानकों पर खरी नहीं उतरी हैं। यह दवाइयां देश के प्रमुख 18 ब्रांड्स के नाम तले मार्केट में बिकती हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, गोवा, गुजरात, केरल और आंध्र प्रदेश में हुए क्वॉलिटी टेस्ट में यह दवाइयां फेल हो गई हैं।
इन राज्यों के ड्रग कंट्रोलर्स का आरोप है कि इन 27 दवाइयों में गुणवत्ता की कमी पाई गई है, इसलिए इन्हें घटिया किस्म की दवाइयों से लेबल्ड किया गया है। ड्रग कंट्रोलर्स का कहना है कि इन दवाइयों पर झूठी लेबलिंग की गई है। साथ ही इनमें गलत इंग्रीडिएंट्स होने के साथ-साथ यह डिसकलरेशन, मॉश्चर फॉर्मेशन टेस्ट फेल हुई हैं। इसके अलावा, यह दवाइयां डिसोल्युशन और डिसइन्टीग्रेशन टेस्ट में फेल हो गई हैं।
ये दवाइयां हुईं टेस्ट में फेल
एबोट इंडिया की एंटीसाइकोटिक ड्रग स्टेमेटिल और एंटीबायोटिक पेनटिड्स, अल्बेमिक फार्मा की एलथ्रोसिन, कैडिला फार्मा की माइग्रेन मेडिसिन वेसाग्रेन, ग्लेनमार्क फार्मा का कफ सीरप एस्क्रिल, जीएसके इंडिया की जेंटल, इपका लैब्स की अर्थराइटस मेडिसिन हाइड्रोएक्सक्लोरिक्वाइन (एचसीक्यूएस), सनोफि सिंथेलबो की मारियल और टेरेंट फार्मा की हाइपरटेंशन ड्रग डिलजेम जांच के घेरे मे है। इसमें से आठ ब्रांड्स की कंपनियां इस कैटेगरी में दिग्गज मानी जाती हैं। फार्मा कंपनियां समान मोलिक्यूल की दवाइयां अलग ब्रांड के नाम से बेचती हैं। इनके मार्केट शेयर 47 प्रतिशत से लेकर 92 प्रतिशत तक हैं।
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इन ब्रांड्स पर है आरोप
इन ब्रांड्स में एबोट इंडिया, सन फार्मा, सिप्ला एंड ग्लेनमार्क फार्मा, अल्केम लैब्स, कैडिला हेल्थकेयर, एमक्योर फार्मा, हेटेरो लैब्स, मोरेपेन लैब्स, मेक्लिओड्स फार्मा, वॉकहार्ट फार्मा, झायडस हेल्थकेयर, सनोफि सिंथेलेबो, टोरंट फार्मा और जीएसके इंडिया शामिल हैं। वहीं, दि इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, इनमें 18 कंपनियों ने जांच के घेरे में आई दवाइयों की बिक्री रोक दी है और सिर्फ एक कंपनी ने प्रभावित दवाइयों के बैच को मार्केट से वापस ले लिया है।
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दवा कंपनियों का तर्क
दवा कंपनियों का कहना है कि सात राज्यों के ड्रग कंट्रोलर्स ने टेस्टिंग के लिए यह दवाइयां अनाधिकृत वितरक से ली हैं, जो कि गलत है। कंपनियां किसी और के लिए कॉन्ट्रैक्ट मैन्युफैक्चरिंग कर रही थीं। गलत लेबलिंग के ऊपर दवा कंपनियों का कहना है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के लिए उठाए गए बैच के लिए लेबलिंग की जरूरत नहीं है। कंपनियों का यह भी कहना है कि इन दवाइयों को मार्केटप्लेस में गलत ढंग से स्टोर और हैंडल किया गया, जिससे दवाइयों की गुणवत्ता प्रभावित हुई।
दवाइयां पहले हुई हैं क्वालिटी टेस्ट में फेल
बुखार में आमतौर पर दी जाने वाली और एक पेनकिलर के रूप में फेमस कॉम्बीफ्लेम (Combiflam) और डीकॉल्ड टोटल (D Cold Total) को भी साल 2017 में क्वालिटी टेस्ट में घटिया पाया गया था। सेंट्रल ड्रग्स स्टेंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन (CDSCO) द्व्रारा कराई गई जांच में मशहूर पेनकिलर कॉम्बीफ्लेम (Combiflam) और सर्दी की शिकायत होने पर दी जाने वाली डी कॉल्ड टोटल (D Cold Total) को खराब क्वालिटी का पाया गया था। इन दवाओं का साल 2017 की शुरुआत में क्वालिटी टेस्ट किए गए थे।
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टेस्ट में फेल हुई ये दवाइयां
मशहूर दवा बनाने वाली कंपनी सनोफी इंडिया की ओर से कहा गया था कि साल 2015 के दौरान मैनुफैक्टर्ड कॉम्बीफ्लेम (Combiflam) खराब गुणवत्ता का बताया गया था। कंपनी की ओर से कहा गया था कि ऑफिशियल नोटिस मिलने पर इसपर कार्यवाही की जाएगी। इसी तरह के क्वालिटी टेस्ट में डीकॉल्ड टोटल भी फेल पाई गई। अन्य दवाइयां बनाने वाली बड़ी कंपनियों ने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की।
साल 2017 में 60 दवाइयां हुई थीं क्वालिटी टेस्ट में फेल
ड्रग्स रेगूलेटरी की जांच में सिप्ला की ऑफलॉक्स-100 डीटी (Oflox-100 DT) टेबलेट, थीओ एस्थैलिन (Theo Asthalin) टेबलेट्स और कैडिला की कैडिलोस सॉन्यूशन (Cadilose solution) को भी घटिया पाया गया है। इस तरह CDSCO ने कुल मिलाकर 60 दवाओं के लिए अलर्ट जारी कर घटिया घोषित किया था। ये सारी दवाएं मार्च 2017 में किए गए क्वालिटी टेस्ट में फेल हुई थीं।
दवाइयों पर रोक: कॉम्बीफ्लेम चौथी बार हुई फेल
अक्टूबर 2015 में बनी कॉम्बीफ्लेस (Combiflam) के बैच नंबर A151195 पर ये टेस्ट किए गए थे। CDSCO द्वारा कॉम्बीफ्लेम को (Combiflam) इससे पहले तीन बार खराब गुणवत्ता वाला बताया जा चुका है। उस दौरान भी ऐसे ही टेस्ट किए गए थे। इसके अलावा कॉम्बीफ्लेम को जब इससे पहले घटिया घोषित किया गया था, तब इसको बनाने वाली कंपनी ने कमी वाले सारे बैचों को वापस मंगा लिया था। कॉम्बीफ्लेम बनाने वाली कंपनी सनोफी इंडिया को इस दवा से सालाना औसतन 169.2 करोड़ रुपए की कमाई होती है।
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माइक्रोबियल टेस्टिंग क्या होती है?
दवाइयों की जांच माइक्रोबियल टेस्टिंग से की जाती है। इसी टेस्टिंग के आधार पर दवाएं टेस्ट की जाती है। माइक्रोब का मतलब होता है सूक्ष्म जीवाणु-फंगस या बैक्टीरिया। आप यह भी समझ लीजिए कि सारे जीवाणु नुकसान पहुंचाने वाले भी नहीं होते हैं, लेकिन कई ऐसे भी होते हैं (जैसे सेल्मोनेला, ईकोलाई) जो गंभीर बीमारियों के कारण बन सकते हैं। माइक्रोबियल टेस्टिंग में ये परीक्षण किया जाता है कि दवाओं में इंसानों के लिए समस्या खड़ी करने वाले जीवाणु तो नहीं हैं। इसके अलावा हर दवा की एक तय समय सीमा भी होती है, जिस दौरान वह सही से काम करती है। इस समय सीमा के निकल जाने के बाद दवा के दुष्प्रभाव भी हो सकते हैं। लेकिन माइक्रोबियल टेस्टिंग में देखा जाता है कि इस समय सीमा के भीतर दवा अपना काम अच्छे से करने में सक्षम है कि नहीं। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि दवा की शेल्फ लाइफ के दौरान उसमें कोई अन्य जीवाणु न पनपें।
दुनिया के हर देश में जीवाणुओ की लिस्ट तय होती है, जिनसे सुरक्षितहोने पर दवाओं को बेचे जाने की अनुमति दी जाती है। माइक्रोबियल टेस्ट फेल होने के दो मतलब होते हैं। पहला यह कि दवा की मैनुफैक्चरिंग के दौरान लापरवाही या अन्य किसी कारण से ये जीवाणु दवा में मौजूद रह गए थे। इस तरह की दवा का सेवन अगर किसी के द्वारा किया जाता है, तो ये जीवाणु उनके शरीर में पहुंच जाते हैं, जिससे स्वास्थ्य स्थिति पैदा हो सकती है। माइक्रोबियल टेस्ट में यह भी देखा जाता ही कि दवा की शेल्फ लाइफ के दौरान यह जीवाणु द्वारा न पनप जाएं।
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