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लिवर कैंसर का इलाज : क्या सर्जरी ही है एकलौता उपाय?

Written by संतोष बी पाटिल · रेडियोलॉजी · द वेन सेंटर


अपडेटेड 24/03/2021

    लिवर कैंसर का इलाज : क्या सर्जरी ही है एकलौता उपाय?

    आज के समय के अनुसार लिवर कैंसर, की वजह से होनेवाली मौतों में चौथी सबसे बड़ी वजहों में से एक माना जाता है। जहां पिछले 40 सालों में इसके मौजूदा और नए मामलों में तीन गुना बढ़ोतरी भी देखी गई है। आम तौर पर देर से होनेवाले डायग्नोसिस के कारण  इसका इलाज क़रना मुश्क़िल होता है। प्रायमरी लिवर कैंसर आमतौर पर उन व्यक्तियों को प्रभावित करता है, जो पहले से ही लिवर डिजीज या सिरोसिस (हेपेटाइटिस बी और सी वायरस इंफेक्शन), एल्कोहॉलिक लिवर डिजीज या फैटी लिवर डिजीज से ग्रस्त हैं। सेकंडरी लिवर कैंसर्स, बॉवेल, लंग्स या ब्रेस्ट में होनेवाले कैंसर के कारण हो सकता है।

    क्या है सर्जिकल रिसेक्शन?

    लिवर का वो हिस्सा, जहां कैंसर पाया जाता है, उसे सर्जिकल रिसेक्शन के जरिये निकालना एक बेहतर उपाय माना जाता है। लेकिन वहीं कुछ पेशंट ट्यूमर के बड़ा होने, लिवर के बाहर ट्यूमर फैलने या अन्य लिवर डिजीज आदि के कारण इस सर्जिकल प्रक्रिया का लाभ नहीं उठा पाते। लिवर ट्रांसप्लांटेशन बेहद कम लोगों के लिए उपलब्ध है, क्योंकि ऑर्गन सप्लाय सिमित रूप से होती है। वहीं बढ़ते वेटिंग पीरियड के चलते ट्यूमर में बढ़ोतरी देखी जाती है, जिससे पेशंट      इस उपाय को नजरअंदाज कर देता है। जहां एक ओर कीमोथेरेपी की सुविधा या एंटीबॉडीज के ग्रोथ के अलावा सिस्टेमिक कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी कारगर नहीं होती, इसलिए लिवर कैंसर के लॉन्ग टर्म सर्वाइवर बेहद कम होते हैं। इसलिए लिवर कैंसर के लिए अब कई ऑल्टरनेटिव ट्रीटमेंट उपलब्ध होने लगे हैं।

    इंटरवेन्शनल रेडियोलॉजी, मेडिसिन और टेक्नोलॉजी का ऐसा मिश्रण है, जो एक मिनिमल इन्वेसिव एंटी कैंसर ट्रीटमेंट के तौर पर पहचान बना रहा है। इन थेरप्यूटिक स्ट्रेटजीस को दो कैटेगरीज में बांटा गया है। इसमें से पहली कैटेगरी है, गाइडेड ऐब्लेटिव थेरेपीज, जिसमें रेडियोफ्रीक्वेंसी ऐब्लेशन (आरएफए), माइक्रोवेव ऐब्लेप्टिव थेरेपी, क्रायोऐब्लेशन, इर्रिवर्सिबल इलेक्ट्रोपोरेशन आदि थेरेपीज का समावेश होता है। वहीं दूसरी कैटेगरी में ट्रांस आर्टेरियल हेपेटिक थेरेपीज का समावेश होता है, जिसमें मुख्य रूप से ट्रांस आर्टेरियल कीमो एम्बोलाइज़ेशन (TACE) और ट्रांस आर्टेरियल रेडियो एम्बोलाइज़ेशन (TARE) का इस्तेमाल किया जाता है। आइये अब इन थेरेपीज के बारे में विस्तार से समझते हैं।

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    1. गाइडेड ऐब्लेटिव थेरेपी –

    रेडियोफ्रीक्वेंसी ऐब्लेशन (आरएफए)

    ये ट्रीटमेंट छोटे ट्यूमर, जिनका साइज 3 सेमी से कम है, उंन्हे ठीक करने के लिए किया जाता है। इंटरवेन्शनल रेडियोलॉजिस्ट एक छोटा, सुई की तरह दिखाई देनेवाला प्रोब लाइव इमेज (CT/USG) की मदद से ट्यूमर में इंसर्ट करते हैं, । इसके बाद रेडियोफ्रीक्वेंसी एनर्जी प्रोब के जरिये ट्यूमर तक पहुंचकर हीट पैदा करती है, जिससे लिवर ट्यूमर को डिस्ट्रॉय किया जा सके। इस प्रोसीजर से नॉर्मल और हेल्दी सेल्स को नुक्सान नहीं पहुंचता।

    माइक्रोवेव ऐब्लेप्टिव थेरेपी

    माइक्रोवेव ऐब्लेशन, डायइलेक्ट्रिक हिस्टेरेसिस के जरिये काम करती है। CT/USG की मदद से प्रॉब को ट्यूमर में दाखिल किया जाता है और हीट के जरिये इन ट्यूमर्स को डिस्ट्रॉय किया जाता है।माइक्रोवेव ऐब्लेप्टिव थेरेपी के कारण कैंसेरियस सेल्स का डिस्ट्रक्शन ज़ोन बढ़ जाता है और पेशंट को दर्द कम होता है। साथ ही इससे हेल्दी ब्लड वेसल्स को नुक्सान कम पहुंचता है।

    क्रायोऐब्लेशन

    क्रायोऐब्लेशन में एक्सट्रीम कोल्ड का इस्तेमाल कर कैंसेरियस ट्यूमर को डिस्ट्रॉय किया जाता है। अल्ट्रसाउंडिंग इमेजिनिंग का इस्तेमाल करके इंटरवेन्शनल रेडियोलॉजिस्ट क्रायो प्रोब की सहायता लेते हैं, जिसमें लिक्विड नाइट्रोजन भरा होता है। इस प्रोब को ट्यूमर में इंसर्ट किया जाता है, जिससे उसे फ्रीज करने में मदद मिलती है। क्रायोऐब्लेशन का इस्तेमाल बड़े ट्यूमर्स के इलाज के लिए किया जाता है, जिसके लिए कई बार पेशंट को जनरल एनेस्थेसिया देने की जरूरत पड़ती है।

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    इर्रिवर्सिबल इलेक्ट्रोपोरेशन

    बदकिस्मती से, कई पेशेंट्स को ट्यूमर के मुख्य बिलियरी ट्रैक्ट में पहुंच जाने के कारण थर्मल ऐब्लेशन नहीं दिया जा सकता। इर्रिवर्सिबल इइलेक्ट्रोपोरेशन (IRE), जो करेंट की मदद से ट्यूमर को मारने के काम आता है, इसका इस्तेमाल इस स्थिति में किया जा सकता है। जहां पर थर्मल ऐब्लेशन टेक्नीक कॉन्ट्राइंडिकेटेड मानी जाती है, वहां पर इर्रिवर्सिबल इलेक्ट्रोपोरेशन काम आती है। इसमें पल्स्ड डायरेक्टेड करेंट का इस्तेमाल करके बाइल डक्ट को बिना नुक्सान पहुंचाए, ट्यूमर्स को ख़त्म किया जाता है।

    अब हम बात करते हैं दूसरी तरह की कैटेगरीज की, जो लिवर ट्यूमर के इलाज में काम आ सकती है।

    2. ट्रांस आर्टेरियल हेपेटिक थेरेपीज –

    ट्रांस आर्टेरियल कीमो एम्बोलाइज़ेशन (TACE)

    ट्रांस आर्टेरियल कीमो एम्बोलाइज़ेशन (TACE) को फर्स्ट लाइन थेरेपी के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, जो इंटरमीडिएट स्टेज में काम आती है। इसमें कीमोथेरेप्युटिक एजेंट को ऑइल में मिक्स करके इस्तेमाल किया जाता है। कीमोथेरेपी में ऐसे ड्रग्स का इस्तेमाल किया जाता है, जो कैंसर सेल्स को ख़त्म करती है । । इस प्रोसीजर में रेडियोलॉजिस्ट एक स्मॉल ट्यूब, जिसे माइक्रो कैथेटर कहा जाता है, इसका इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रोसीजर में पेशेंट के ग्रॉइन या रिस्ट में एक छेद के जरिये उसे ऐसी ब्लड वेसल तक पहुंचाया जाता है, जो लिवर ट्यूमर को ब्लड सप्लाय करती हैं। इसके बाद इस कैथेटर से कीमोथेरेप्युटिक एजेंट को इंजेक्ट किया जाता है और ब्लड वेसल को ब्लॉक कर दिया जाता है। इससे ये एजेंट कुछ समय के लिए ब्लड वेसल में मौजूद रहते हैं और लिवर ट्यूमर को डिस्ट्रॉय कर देते हैं।

    स्टडी से ये पता चला है कि इस टेक्नीक के जरिये पेशंट सर्वाइवल रेट को बढ़ते हुए देखा गया है। ऑइल की जगह ड्रग एल्युटिंग बीड्स का भी इस्तेमाल किया जाता है, जिससे लिवर को कम नुक्सान पहुंचता है। जो लोग लिवर ट्रांसप्लांट के लिए इंतज़ार कर रहे हैं, उनके लिए भी ये थेरेपी काम आ सकती है, इससे ट्यूमर की ग्रोथ रेट कम हो जाती है।

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    ट्रांस आर्टेरियल रेडियो  एम्बोलाइज़ेशन (TARE)

    ये ट्रीटमेंट इंटरमीडिएट स्टेज  पेशंट्स के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रोसीजर में कैथेटर को उस आर्टरी में डाला जाता है, जो ट्यूमर को ब्लड सप्लाय करती है। इस ट्रीटमेंट की एफीकेसी और सेफ्टी कीमो एम्बोलाइज़ेशन जितनी ही है। रेडियो एम्बोलाइज़ेशन एक नया कॉन्सेप्ट है, नॉर्मल लिवर रेडिएशन से बच जाता है।

    ये नॉन सर्जिकल ट्रीटमेंट बेहतर रिसल्ट के लिए सेपरेटली या कॉन्बिनेशन में दिए जाते हैं। इनके फ़ायदे ये हैं कि ये कम इनवेसिव है और इनके साइड इफेक्ट भी कीमोथेरेपी की तुलना में कम हैं। ऐब्लेटिव थेरेपी ट्यूमर को ही टारगेट करती है, जिससे हेल्दी ऑर्गन्स को कोई नुक्सान नहीं होता। इन प्रोसिजर्स में पेशंट बेहतर महसूस कर सकता है और इसमें एनेस्थीसिया की जरूरत नहीं पड़ती।

    जब लीवर कैंसर को अर्ली स्टेज में पहचान लिया जाए, तो इन ट्रीटमेंट्स के रिज़ल्ट्स अच्छे दिखाई देते हैं। इसलिए जिन पेशंट्स को क्रॉनिक हेपेटाइटिस, सिरोसिस की समस्या होती है या जिन्हे लिवर कैंसर डेवेलप होने का रिस्क होता है, उन्हें नियमित मॉनिटरिंग की जरूरत होती है।

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