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टाइप-1 डायबिटीज क्या है? जानें क्या है जेनेटिक्स का टाइप-1 डायबिटीज से रिश्ता

टाइप-1 डायबिटीज क्या है? जानें क्या है जेनेटिक्स का टाइप-1 डायबिटीज से रिश्ता

‘डायबिटीज’ यह नाम तो सुना ही होगा। फिर आप यह भी जानते होंगे कि डायबिटीज दो तरह के होते हैं, टाइप-1 डायबिटीज और टाइप-2 डायबिटीज। आम तौर पर लोगों को जो डायबिटीज होता है, वह टाइप-2 डायबिटीज होता है। टाइप-1 डायबिटीज बहुत कम लोगों को होता है, विशेषकर यह बच्चों में पाया जाता है। टाइप-2 डायबिटीज के बारे में तो आप आए दिन बहुत कुछ सुनते रहते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि टाइप-1 डायबिटीज क्या है? तो चलिए टाइप-1 डायबिटीज के बारे में विस्तार से जानते हैं। 

टाइप-1 डायबिटीज ऑटोइम्यून कंडिशन होती है। इस कंडिशन में इम्यून सिस्टम कमजोर हो जाने के कारण पैंक्रियाज जो इंसुलिन का उत्पादन करता है, वह पर्याप्त नहीं होता है। असल में इंसुलिन वह हार्मोन होता है, जो ग्लूकोज को कोशिकाओं तक पहुंचाने में मदद करता है। इंसुलिन के बिना शरीर ब्लड शुगर को नियंत्रित नहीं कर पाता है। ऑटोइम्यून कंडिशन में लोगों के लिए जटिलताओं को संभालना मुश्किल हो जाता है।

यह माना जाता है कि, टाइप-1 डायबिटीज मुख्य रूप से जेनेटिक कंपोनेंट के कारण होता है। हां, इसके अलावा कुछ नॉन जेनेटिक कारण भी होते हैं। इस आर्टिकल में हम मुख्य रूप से इस बात को विश्लेषित करने की कोशिश करेंगे कि जेनेटिक और नॉन जेनेटिक किन कारणों से टाइप-1 डायबिटीज होता है। टाइप-1 डायबिटीज क्या है, इस बारे में थोड़ी चर्चा करने के बाद पहले यह गुत्थी सुलझा लेते हैं कि आखिर टाइप-1 डायबिटीज और टाइप-2 डायबिटीज में अंतर क्या है?

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टाइप-1 डायबिटीज (Type 1 diabetes) और टाइप-2 डायबिटीज (Type 2 diabetes) में अंतर

आम तौर पर लोग टाइप-1 और टाइप-2 के बीच के अंतर को समझ नहीं पाते हैं। इन दोनों टाइपों में समान बात यह है कि, ब्लड शुगर की मात्रा ज्यादा होने के कारण शरीर को तरह-तरह की शारीरिक जटिलताओं का सामना करना पड़ता है। इसलिए दोनों टाइप के डायबिटीज को सही समय पर कंट्रोल में लाना बहुत जरूरी होता है। 

किंग जॉज मेडिकल कॉलेज के एंडोक्राइन विभाग के हैंड डॉक्टर डी हिमांशू का कहना है कि एचएचएस आमतौर पर उन लोगों में विकसित होता है जिनके पास टाइप 2 मधुमेह (Type 2 Diabetes) नियंत्रण में नहीं है और जिन्हें संक्रमण है, उन्होंने अपनी दवाएं लेना बंद कर दिया है, दिल का दौरा (Heart attack) या स्ट्रोक है, या दवा लेते हैं जो इस स्थिति का कारण बन सकते हैं, जैसे स्टेरॉयड।मधुमेह कोमा, इसमें जब मरीज का शुगर लेवल बहुत ही ज्यादा लो हो जाता है, तो यह एक आपात स्थिति होती है। जिसमें मरीज कोमा में भी जा सकता है। जिसके लिए तत्काल चिकित्सा ध्यान देने की आवश्यकता होती है। चूंकि अत्यधिक हायपोग्लाइसीमिया (Hypoglycemia) या हायपरग्लेसेमिया (Hyperglycemia) डायिबिटीज कोमा का कारण बन सकता है, इन दो स्थितियों के लक्षण मधुमेह कोमा के लक्षण हो सकते हैं।

टाइप-1 और टाइप-2 डायबिटीज के अंतर को समझने के लिए सबसे पहले जो बात आती है वह हैं, टाइप-1 डायबिटीज लगभग 8% लोगों को प्रभावित करता है तो टाइप-2 डायबिटीज 90% लोगों को करता है।

1-कारण

टाइप 1 डायबिटीज – इस टाइप के डायबिटीज में इंसुलिन का उत्पादन ठीक तरह से नहीं हो पाता है।

टाइप 2 डायबिटीज –  इस कंडिशन में पैंक्रियाज जिस इंसुलिन का उत्पादन करता है, वह शरीर की कोशिकाएं इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं।

2- जोखिम

टाइप-1 डायबिटीज- इसके जोखिम के बारे में अभी भी प्रामाणित कारणों के बारे में नहीं पता है।

टाइप-2 डायबिटीज- इसके जोखिम के कारकों में सबसे बड़ा कारण वजन का बढ़ना या मोटापा है। 

3- लक्षण

टाइप-1 डायबिटीज: इसके लक्षण बहुत जल्दी सामने आने लगते हैं या महसूस होने लगते हैं। 

टाइप-2 डायबिटीज: इसके लक्षण बहुत देर के बाद महसूस होते हैं। इसलिए पहले चरण में इसको लक्षणों के आधार पर समझना बहुत मुश्किल हो जाता है।

4-मैनेजमेंट

टाइप-1 डायबिटीज: इस कंडिशन में ब्लड शुगर को कंट्रोल करने के लिए इंसुलिन लेने की जरूरत होती है।

टाइप-2 डायबिटीज: इस कंडिशन को टाइप-1 डायबिटीज की तुलना में ज्यादा तरीकों से मैनेज कर सकते हैं, जैसे दवा, एक्सरसाइज और डायट। हां, टाइप-2  डायबिटीज में इंसुलिन भी दिया जाता है, लेकिन वह आखिरी विकल्प होता है। 

5- इलाज और बचाव

टाइप 1 डायबिटीज: टाइप-1 के इलाज के बारे में अभी भी अनुसंधान चल रहा है, कोई भी सटिक या प्रामाणिक तथ्य अभी तक सामने नहीं आया है।

टाइप-2 डायबिटीज: वैसे तो टाइप-2 के इलाज के बारे में भी कोई प्रमाण अभी तक नहीं मिला है। फिर भी समय पर इलाज करने पर इसको रोका जा सकता है या कुछ हद तक बचाया जा सकता है।

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 क्या टाइप-1 (Type 1 Diabetes) और टाइप-2 डायबिटीज (Type 2 Diabetes) के रिस्क फैक्टर्स अलग-अलग होते हैं?

वैसे तो दोनों के रिस्क फैक्टर को लेकर कोई प्रामाणित तथ्य नहीं है, लेकिन दोनों के रिस्क फैक्टर्स को अनुमान के तौर पर बताया जा सकता है। 

टाइप-1 डायबिटिज

टाइप-1 जीवनशैली से प्रभावित नहीं होता है, जिस तरह से टाइप-2 डायबिटीज होता है। कहने का मतलब यह है कि टाइप-1 डायबिटीज को लाइफस्टाइल में बदलाव लाकर कंट्रोल में नहीं लाया जा सकता है।  बच्चे से लेकर 40 वर्ष के उम्र तक टाइप-1 डायबिटीज होने का खतरा होता है। 40 वर्ष के बाद टाइप-1 डायबिटीज होने का खतरा न के बराबर होता है।

टाइप-2 डायबिटीज 

टाइप-2 डायबिटीज होने के पीछे बहुत सारे कारण होते हैं, जैसे- पारिवारिक इतिहास, उम्र और मोटापा। इसलिए जीवनशैली में बदलाव लाकर आप इन खतरों को कम कर सकते हैं। हेल्दी खाना, खुद को एक्टिव रखकर और हेल्दी वेट को मेंटेन करके आप ब्लड शुगर को कंट्रोल में कर सकते हैं। टाइप-2 के मामले में 40 साल के बाद होने का खतरा सबसे ज्यादा होता है। अभी तो यंग लोगों को भी टाइप-2 डायबिटीज होने लगा है। 

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टाइप 1 और टाइप 2 डायबिटीज के लक्षण

वैसे तो दोनों टाइप के डायबिटीज में लक्षण देखे जाए तो एक जैसे ही हैं। जैसे कि, रात को बार-बार पेशाब करने जाना, बार-बार प्यास लगना, बार-बार भूख लगना, हद से ज्यादा थकान महसूस करना, बेवजह वजन कम होना, जेनिटल एरिया में खुजली या छाले जैसे घाव होना, कटने या छिलने पर ठीक होने में समय लगना, धूंधला दिखना। लेकिन सबसे बड़ा दोनों में अंतर यह है कि टाइप-1 डायबिटीज में लक्षण तुरन्त महसूस होने लगते हैं, लेकिन उसकी जगह पर टाइप-2 डायबिटीज में लक्षण बहुत देर के बाद सामने आते हैं। यहां तक कभी-कभी मरीज को दस साल के बाद समझ में आता है कि उसको टाइप-2 डायबिटीज हुआ है। इसलिए टाइप-2 के लक्षणों को पहले स्टेप में समझना मुश्किल हो जाता है। 

टाइप-1 और टाइप-2 डायबिटीज के उपचार में भिन्नता

टाइप-1 और टाइप-2 डायबिटीज का उपचार जितना जल्दी हो सके उतना अच्छा होता है क्योंकि इससे शरीर में जो जटिलताएं उत्पन्न होती हैं, उससे राहत मिलने में आसानी होती है। अगर आप टाइप-1 या टाइप-2 में से किसी एक से ग्रस्त हैं, तो आपको रोज का काम करने में भी समस्या हो सकती है। अगर आपको टाइप-1 डायबिटीज है, तो इसको मैनेज करने का एक ही उपाय है इंसुलिन लेना। जरूरत के अनुसार सही मात्रा में इंसुलिन लेकर ही आप ब्लड शुगर के लेवल को कंट्रोल में ला सकते हैं। खुद के ब्लड शुगर के लेवल को नियमित रूप से चेक करने की जरूरत होती है। हर दिन डायट में कार्ब्स इनटेक को काउन्ट करके ही आप निर्धारित कर सकते हैं कि कितना इंसुलिन लेना है। कहने का मतलब यह है कि इंसुलिन कितना लेना है यह आपने कितना कार्बोहाइड्रेड वाले फूड्स का सेवन किया है उस पर निर्भर करता है। इसके अलावा आपको हेल्दी लाइफस्टाइल, एक्सरसाइज, संतुलित भोजन आदि का पालन सही तरीके से करना है। तभी आपको टाइप-1 के कारण होने वाली जटिलताओं से कुछ हद तक मुक्ति मिल सकती है।

टाइप-2 डायबिटीज में सबसे पहले हेल्दी एक्टिव लाइफस्टाइल और बैलेंस्ड डायट अपनाने के लिए कहा जाता है। इसके अलावा हेल्दी वेट को मेंटेन भी करना पड़ता है। अगर इन सबके अलावा भी ब्लड शुगर कंट्रोल नहीं हो रहा है, तभी दवा और इंसुलिन देने की नौबत आती है। ब्लड शुगर लेवल की जांच कब-कब करनी है, इसके बारे में आपकी शारीरिक अवस्था के आधार पर डॉक्टर जांच करने की सलाह देते हैं। 

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टाइप-1 डायबिटीज (Type 1 diabetes) के लक्षण क्या हैं? 

टाइप-1 डायबिटीज क्या है, इस बात को अच्छी तरह से समझने के लिए उसके लक्षणों के बारे में भी जानना बहुत जरूरी है। जैसा कि पहले भी चर्चा की गई है कि दोनों टाइप के डायबिटीज के लक्षण लगभग समान ही होते हैं। टाइप-1 डायबिटीज होने की संभावना 4 साल से लेकर लगभग 14-15 साल तक रहती है या 40 के पहले तक। अगर पहले चरण में इस बीमारी को नजरअंदाज किया गया, तो धीरे-धीरे जटिलताएं बढ़ती जाती हैं-

– जो बच्चे पहले बिस्तर में पेशाब नहीं करते थे वह इस बीमारी से आक्रांत होने पर करने लगते हैं

-बार-बार पेशाब करने जाते हैं

-बहुत प्यास और भूख लगती है

-अचानक वजन कम होने लगता है

-हाथ-पैर में झुनझुनी जैसा एहसास होता है

-धुंधला दिखता है

-मूड स्विंग

-ज्यादा थकान महसूस होती है, आदि। 

अगर इन लक्षणों को महसूस करने के बाद भी उपचार नहीं करवाया गया तो हेल्थ कंडिशन डायबिटिक केटोएसिडोसिस में चली जाती है। इस अवस्था में ग्लूकोज लेवल हद से ज्यादा बढ़ जाता है।  डायबिटिक केटोएसिडोसिस के लक्षणों में जो बहुत आम हैं,वह हैं- तेजी से सांस लेना, उल्टी होना, मुंह सूख जाना, मुंह से फल जैसा महक निकलना आदि। अगर तब भी इलाज के लिए नहीं ले जाया गया तो, मरीज कोमा में जा सकता है या बाद में मृत्यु भी हो सकती है।

टाइप 1 डायबिटीज क्या है, इस विषय को और भी बेहतर तरीके से समझने के लिए अब समझते हैं कि आखिर टाइप-1 डायबिटीज होता क्यों है। टाइप-1 डायबिटीज में सबसे बड़ा खतरा जेनेटिक्स के कारण होता है। इसमें परिवार का इतिहास आने के साथ कुछ विशेष जीन की उपस्थिति भी शामिल होती है। 

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पारिवारिक इतिहास 

यह बात साबित हो चुकी है कि टाइप-1 डायबिटीज होने का खतरा उन लोगों को सबसे ज्यादा होता है जिनके परिवार में इस बीमारी के होने का इतिहास रहा हो। अगर  माता-पिता दोनों को टाइप-1 डायबिटीज है तो, बच्चे को होने की पूरी संभावना रहती है। अमेरिकन डायबिटीज एसोसिएशन के अनुसार अगर आप पुरूष हैं और आपको टाइप-1 डायबिटीज है तो,  17 में से 1 बच्चे को टाइप-1 होने की संभावना रहती है। अगर आप महिला हैं और आपको टाइप-1 डायबिटीज है, साथ ही आपने 25 वर्ष के आयु के पहले बच्चे को जन्म दिया है तो 25 में से 1 बच्चे को डायबिटीज होने का खतरा होता है। इसके अलावा अगर आपने 25 वर्ष की आयु के बाद बच्चे को जन्म दिया है तो 100 में से 1 बच्चे को होने की संभावना रहती है। 

लेकिन इन नंबरों में भी थोड़ा अपवाद हो सकता है। टाइप-‍1 डायबिटीज के मरीजों में हर 7 में से 1 व्यक्ति को टाइप-2 पॉलीग्लैंडुलर ऑटोइम्यून सिंड्रोम होने का खतरा होता है। इसके साथ ऐसे मरीजों को डायबिटीज होने के साथ थायराइड डिजीज भी होता है। उनका एड्रेनल ग्लैंड अच्छी तरह से काम नहीं कर पाता। कुछ को इम्यून सिस्टम डिसऑर्डर होता है। अगर आपको यह सारे सिंड्रोम हैं तो हर 2 में से 1 बच्चे को होने का खतरा होता है।

यहां तक कि बच्चे को टाइप-1 डायबिटीज होने का खतरा उनके प्रथम आहार पर भी निर्भर करता है। कहने का मतलब यह है कि जिन शिशुओं ने माँ के दूध का सेवन किया है, उनको टाइप-‍1 होने का खतरा कम होता है। 

अनुसंधानों से यह खोजने की कोशिश की जा रही है कि कैसे जीन के आधार पर डायबिटीज होने का पता लगाया जाता है। उदाहरण के तौर पर, ज्यादातर गोरे लोग जिनको टाइप-1 डायबिटीज होता है, उनमें  एचएलए-डीआर3 या एचएलए-डीआर4  ( HLA-DR3 या HLA-DR4) नामक जीन होता है। अगर आपका बच्चा भी गोरा है तो वह यह जीन शेयर कर सकता है और इसी कारण उसको टाइप-1 डायबिटीज होने का खतरा सबसे ज्यादा होता है। 

एक दूसरा महंगा टेस्ट उन बच्चों के साथ किया जाता है, जिनके भाई-बहन टाइप-1 डायबिटीज से जुझ रहे होते हैं। इस टेस्ट में पैंक्रियाज में इंसुलिन के लिए एन्टीबॉडिज  या ग्लूटामिक एसिड डिकार्बोजलेस नामक एंजाइम को मापा जाता है। जिस बच्चे में इसका लेवल ज्यादा मिलता है, उसको टाइप-1 डायबिटीज होने का खतरा ज्यादा होता है। 

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पारिवारिक इतिहास के अलावा दूसरे फैक्टर्स

पारिवारिक इतिहास के अलावा भी कुछ ऐसे फैक्टर्स हैं, जो ऑटोइम्यून रिएक्शन को उत्तेजित करते हैं-

वायरस के साथ संपर्क- अध्ययनों में यह पाया गया है कि प्रेग्नेंसी में वायरस के संपर्क में आने के कारण बच्चे को टाइप-1 डायबिटीज होने का खतरा हो सकता है। शोधकर्ताओं ने मैटरनल वायरल इंफेक्शन के साथ टाइप-‍1 डायबिटीज विकसित होने के बीच गहरा रिश्ता पाया है। 

जलवायु के कारण- अध्ययनों से यह भी पाया गया है कि टाइप-1 डायबिटीज विकसित होने का एक और कारण जलवायु भी है।  अनुसंधान के दौरान यह पाया गया है कि समुद्री जलवायु, हाई ल्टिटूड, वह जगह जहां सूरज का एक्सपोजर कम होता है, वहां के बच्चों को बचपन में टाइप-1 डायबिटीज होने का खतरा होता है। 

प्रसवकालिन जोखिम– अनुसंधान में यह भी पाया गया है कि गर्भधारण के दौरान मां का वजन भी शिशु में टाइप-1 डायबिटीज होने का खतरा बढ़ा सकता है। 

कहने का मतलब यह है कि,  ये नॉनजेनेटिक फैक्टर्स ऑटोइम्यून स्ट्रेस को बढ़ाकर टाइप-1 डायबिटीज होने का खतरा बढ़ाने में मदद करते हैं। 

और पढ़ें : एलएडीए डायबिटीज क्या है, टाइप-1 और टाइप-2 से कैसे है अलग

इसके अलावा भी साथ में कुछ मिथकों के बारे में भी बात कर लेते हैं-

1- मिथक- मोटापा टाइप-1 डायबिटीज होने का कारण होता है।

   सच- वजन इस बीमारी का रिस्क फैक्टर तो है लेकिन इसके प्रमाण बहुत कम मिलते हैं।

2- मिथक- ज्यादा मीठा खाने के कारण टाइप-1 डायबिटीज होता है। 

   सच- टाइप-1 डायबिटीज जेनेटिक कारणों से होता है। मीठा खाने की वजह का कोई प्रमाण अभी तक नहीं मिला है।

नोट-ऊपर दी गई जानकारी चिकित्सा सलाह का विकल्प नहीं है। हैलो स्वास्थ्य किसी भी तरह की कोई भी मेडिकल सलाह नहीं दे रहा है। अगर इससे जुड़ा आपका कोई सवाल है, तो अधिक जानकारी के लिए आप अपने डॉक्टर से संपर्क कर सकते हैं।

3- मिथक- टाइप-1 डायबिटीज के मरीज कभी मीठा नहीं खा सकते।

    सच- जो मरीज डायट और दवा के द्वारा अपने ब्लड शुगर को कंट्रोल कर लेते हैं, वह डॉक्टर से सलाह लेकर कार्बोहाइड्रेड या मीठा कभी-कभी खा सकते हैं। 

4- मिथक- टाइप-1 डायबिटीज ठीक हो सकता है।

    सच- सच तो यह है कि टाइप- 1 डायबिटीज कभी ठीक नहीं हो सकता है।

अब तक के चर्चा से आप समझ ही गए होंगे कि टाइप-1 डायबिटीज क्या है। टाइप-1 डायबिटीज होने का मूल कारण है जेनेटिक्स। हैलो स्वास्थ्य किसी भी तरह की कोई भी मेडिकल सलाह नहीं दे रहा है। अगर इससे जुड़ा आपका कोई सवाल है, तो अधिक जानकारी के लिए आप अपने डॉक्टर से संपर्क कर सकते हैं।

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डिस्क्लेमर

हैलो हेल्थ ग्रुप हेल्थ सलाह, निदान और इलाज इत्यादि सेवाएं नहीं देता।

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Current Version

09/11/2021

Mousumi dutta द्वारा लिखित

के द्वारा मेडिकली रिव्यूड डॉ. प्रणाली पाटील

Updated by: Niharika Jaiswal


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के द्वारा मेडिकली रिव्यूड

डॉ. प्रणाली पाटील

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Mousumi dutta द्वारा लिखित · अपडेटेड 09/11/2021

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