इसके अतिरिक्त और भी बहुत सी समस्याएं देखने को मिल सकती है। हर शिशु में इसके अलग-अलग लक्षण नजर आ सकते हैं। ऐसे में डॉक्टर को उसे समय पर दिखाना जरूरी है। डॉक्टर स्टेथोस्कोप द्वारा शिशु की स्थिति देखते हुए इलाज शुरू कर देंगे। शिशु के फेफड़ाें की स्थिति को समझने के लिए डॉक्टर एक्सरे की सलाह भी दे सकते हैं।
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उपचार
शिशु में हुए निमोनिया का इलाज इस बात पर निर्भर करता है कि उसे किस स्टेज का निमोनिया है। हल्का निमोनिया होने पर कुछ एंटीबायोटिक्स की सलाह देंगे। शिशु की हालत ज्यादा गंभीर होने पर डॉक्टर उन्हें अस्पताल में भर्ती भी कर सकते हैं। इसके अलावा बच्चे को पूरे आराम की सलाह दी जाती है। बुखार को कम करने के लिए शिशु को पैरासिटामोल भी डॉक्टर से पूंछकर दिया जा सकता है। इसकी कितनी डोज देनी है, यह डाॅक्टर ही तय करेंगे। इसके अलावा शिश के कंजेस्टेड लंग को क्लीन करने के लिए डॉक्टर द्वारा नेब्यूलाइजर की सलाह भी दी जाती है।
पीलिया (Jaundice)
नवजात शिशु में जॉन्डिस सामान्य माना जाता है। लेकिन ध्यान न देने पर यह उनके लिए गंभीर हो सकता है। इसका प्रभाव भी शिशू के पूरे शरीर पर पड़ता है। अगर देखा जाए तो पीलिया अधिकतर बच्चों में पैदा होने के बाद देखा जाता है। समय रहते इसका इलाज बहुत जरूरी है।
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एप्नीया ऑफ मैच्योरिटी (Apnea of prematurity)
प्रीमैच्योर शिशु में सांस की समस्या का कारण एप्नीया की समस्या भी हो सकती है। इसमें शिशु की सांस हल्की होने लगती है। एप्नीया का पता मॉनीटर के द्वारा चैक कर के किया जाता है। एप्नीया की समस्या की समस्या, जो बच्चे 27 सप्ताह से पहले हो जाते हैं, उनमें अधिकतर देखी जाती है। जो बच्चे समय के साथ पैदा होते हैं, उनमें यह समस्या बहुत ही कम देखने को मिलती है। एपनिया की प्रॉब्लम, आमतौर पर जन्म के तुरंत बाद नहीं होती है। यानि की जब शिशु 1 से 2 दिन का हो जाता है। तब यह समस्या देखी जाती है।समय से पहले हुए शिशुओं में एपनिया के दो मुख्य कारण देखे जाते हैं। पहला इसमें शिशु सांस लेने की कोशिश करता है, पर सांस ले नहीं पाता है और दूसरा शिशु सांस ले ही नहीं पाता है।
उपचार
जिन शिशुओं में एपनिया का खतरा होता है, उसे एक मॉनिटरिंग के साथ ऑक्सिजन दिया जाता है। सामान्य समसया होने पर एपनिया का इलाज एमिनोफिललाइन नामक दवा से किया जाता है। इसकी डोज डाॅक्टर द्वारा तय किया जाता है। अधिक गंभीर मामलों के शिशु को वेंटिलेटर पर रखने की आवश्यकता हो सकती है। यह तब तक होगा जब तक तंत्रिका तंत्र परिपक्व नहीं हो जाता। यह समस्या पूर्ण रूप से शिशु में तब ठीक होती है, जब बच्चा 40 से 44 सप्ताह की आयु का होता है।
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फेफड़ों की क्रॉनिक बीमारी (सीएलडी)
इस स्थिति को ब्रोंकोप्लोमोनरी डिस्प्लेसिया (बीपीडी) भी कहा जाता है। ऐसा तब हो सकता है जब शिशु समय से बहुत जल्दी पैदा हुआ हो, या जब उसके फेफड़े ज्यादा देर तक वेंटिलेटर पर होने से थोड़े कड़े व सख्त हो जाते हैं। इस स्थिति वाले शिशु को वेंटिलेटर से आने के बाद थोड़ी देर के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता हो सकती है। बीपीडी लगभग 25 से 30 प्रतिशत शिशुओं में होता है जो 28 सप्ताह से पहले पैदा होते हैं और जिनका वजन 2.2 पाउंड से कम होता है। 24 से 26 सप्ताह के बीच जन्म लेने वाले बहुत समय से पहले के बच्चों में यह सबसे आम है।
इसके अधिकतर मामलों में वेंटीलेटर पर शिशु को रखना पड़ता है। जब बच्चा 3 से 4 सप्ताह का हो जाता है, तो डॉक्टर कभी-कभी दवाओं द्वारा ठीक करने की काेशिश करते हैं। डॉक्टर अक्सर बीपीडी के इलाज के लिए स्टेरॉयड दवाओं का इस्तेमाल करते थे। लेकिन क्योंकि स्टेरॉयड का उपयोग सेरेब्रल पाल्सी जैसी बाद की विकास संबंधी समस्याओं को देखा गया है, डॉक्टर अब केवल सबसे गंभीर मामलों में ही स्टेरॉयड का उपयोग करते हैं।
प्री मैच्योर शिशु का काफी ध्यान रखने की आवश्यकता होती है। लेकिन अलर शिशु में इस तरह के लक्षण दिखायी दे रहे हैं, तो घरेलू इलाज के बजाए डॉक्टर से तुरंत संपर्क करें।