प्लास्टिक (plastic) कचरे की बात की जाए तो हर साल 1.5 लाख टन से ज्यादा प्लास्टिक (plastic) कचरा विदेशों से भारत आता है। ऑल इंडिया प्लास्टिक मैन्यूफैक्चरर्स एसोसिएशन (All India Plastic Manufacturer Association) की मानें तो, 2% से 5% प्लास्टिक(plastic) कचरा रिसाइकल नहीं हो पाता। इसकी वजह से पर्यावरण को नुकसान होता है। प्लास्टिक (plastic) की थैलियों को इक्ट्ठा नहीं कर पाने के कारण भी पर्यावरण को काफी नुकसान होता है। यदि पर्यावरण नहीं बचेगा तो, मानव जाति से लेकर पशु—पक्षी कोई भी नहीं बचेगा। विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक (plastic) से पशु—पक्षी ही नहीं मानव जाति को भी खतरा है। आइए जानते हैं कि किस प्लास्टिक (plastic) से क्या खतरा हो सकता है।
पोलिइथिलिन टेरेफ्थैलेट (पीईटी) (PET: polyethylene terephthalate)
पीईटी का इस्तेमाल पानी की बोतल, सोफ्ट ड्रिंक्स की बोतल आदि की बोतल बनाने के लिए किया जाता है। गर्मी के संपर्क में आने पर इससे एक जहरीला मेटलॉइड (metalloid) निकलकर बोतल में रखे खाने या पेय पदार्थ के संपर्क में आ जाता है। इसके कारण उल्टी, दस्त या पेट का अल्सर होने की संभावना रहती है। बोतल धूप के संपर्क, अल्मारी में ज्यादा समय रहने या किसी भी तरह से गर्मी के संपर्क में आती है तो, इस जहरीले पदार्थ का खतरा उतना ही बढ़ जाता है।
हाई डेंसिटी पोलिइथिलिन (एचडीपीई) (HDPE: high-density polyethylene)
एचडीपीई का उपयोग दूध या जूस की बोतल, डिटर्जेंट की बोतल, शैंपू की बोतल, ग्रोसरी बैग, अनाज पैक करने आदि में किया जाता है। पीईटी की तरह ही इसका इस्तेमाल भी सुरक्षित माना जाता है। इससे इस्ट्रोजेनिट केमिकल (estrogenic chemicals) निकलता है। यह भ्रूण व किशोरों के लिए खतरा माना जाता है।
पोलिविनाइल क्लोराइड (पीवीसी) (PVC: polyvinyl chloride)
पीवीसी ठोस व लचीला दोनों प्रकार का हो सकता है। इसका उपयोग खाने को पैक करने, बच्चों के खिलाने, टेबलक्लोथ, फ्लोरिंग, बच्चों के मेट और दवा आदि को पैक करने में किया जाता है। पीवीसी में डीईएचपी (DEHP) नाम का थैलेट (phthalate) होता है। इसके कारण पुरुषों में महिलाओं के लक्षण आने की संभावना होती है। कुछ उत्पादों में (DiNP) का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें भी हार्मोन को प्रभावित करने वाले लक्षण देखे गए हैं।
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लो डेंसिटी पोलिइथिलिन (एलडीपीई) (LDPE: low-density polyethylene)
एलडीपीई का उपयोग ड्राई क्लीनिंग बैग, ब्रेड बैग, न्यूज पेपर बैग, कूड़े के बैग व गर्म और ठंडे पेय पदार्थों के कप बनाने में होता है। एलडीपीई में बीपीए नहीं होता पर यह भी इस्ट्रोजेनिक केमिकल छोड़ सकता है।
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पोलिप्रोपिलीन (पीपी) (PP: polypropylene)
पीपी से दही के डब्बे, रोजमर्रा खाने वाली चीजों के डब्बे आदि बनाए जाते हैं। पीपी में गर्मी को झेलने की क्षमता रहती है। इसलिए कहा जाता है कि इससे अन्य प्लास्टिक (plastic) की तरह हानिकारक केमिकल नहीं निकलते।
पोलिस्ट्रिन (पीएस) (PS: polystyrene)
पीएस को ज्यादातर स्ट्रायरोफोम (Styrofoam) के नाम से जाना जाता है। इसे कप, प्लेट, सूपर माकेर्ट में नॉनवेज रखने वाली ट्रे आदि को बनाने में किया जाता है। इससे कैंसरकारी तत्व (carcinogen) स्ट्रीन (styrene) के निकलने की आशंका होती है। खासकर गर्मी के संपर्क में आने से यह कैंसरकारी तत्व निकलता है।
अन्य सभी प्लास्टिक (plastic) की चीजें
अन्य सभी तरह के प्लास्टिक (plastic) को #7 plastic माना जाता है। #7 plastic से बनाया गया सभी तरह का प्लास्टिक (plastic) बिस्फीनोल ए (bisphenol A) बीपीए या बिस्फीनोल एस (bisphenol S) बीपीएस छोड़ता है। इससे मनुष्य के शारीरिक विकास व व्यवहार पर असर पड़ता है। इनसे कैंसर, मोटापा, हृदय संबंधी बीमारी आदि होने की संभावना होती है।
फिलहाल सिंगल यूज प्लास्टिक (plastic) पर लगा प्रतिबंध
प्लास्टिक (plastic) की बनी ऐसी चीजें, जिनका हम सिर्फ एक ही बार इस्तेमाल कर सकते हैं या इस्तेमाल कर फेंक देते हैं। उसे सिंगल यूज प्लास्टिक कहा जाता है।
- पतली वाली पन्नी जो, सामान लाने के लिए इस्तेमाल होती है
- प्लास्टिक (plastic) वाले चाय के कप या पानी के ग्लास
- पानी की बोतल जो बाहर से एक बार के इस्तेमाल के लिए खरीदी जाती है
- कोल्ड ड्रिक्स की बोतल
- प्लास्टिक (plastic) की स्ट्रा
- प्लास्टिक (plastic) की प्लेट
- केक के साथ मिलने वाला चाकू
- प्लास्टिक (plastic) के चम्मच और कांटे
- डिस्पोजेबल आइटम्स
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प्लास्टिक (plastic) के बजाए इनका करें इस्तेमाल
- जूट या कागज या कपड़े से बनी थैली का उपयोग करें।
- प्लास्टिक (plastic) की जगह स्टील का चाकू, चम्मच या लकड़ी की चम्मच का इस्तेमाल करें।
- प्लास्टिक (plastic) की जगह पेपर से बने स्ट्रॉ इस्तेमाल करें।
- पानी के लिए प्लास्टिक (plastic) की जगह कॉपर, शीशे या स्टील आदि की बोतलों का यूज करें।
प्लास्टिक (plastic) का इस्तेमाल कम से कम करें। यदि संभव हो सके तो न ही करें। इससे ही हमारा पर्यावरण और हम स्वस्थ तरह से जी सकेंगे।
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