क्या ‘पीरियड्स’ को आज भी टैबू माना जाता है? इसका सीधा जवाब है हां। अगर कुछ फैमिलीज को छोड़ दिया जाए तो आज भी लोग परिवार में इस बारे में बात नहीं करते हैं। पुरुषों के सामने तो पीरियड्स का नाम लेना भी अपराध जैसा माना जाता है। सैनिटेरी पैड को सबसे छुपाकर रखा जाता है। अगर गलती से किसी लड़की का सैनिटरी पैड उसके बैग से गिर जाता है या सबके सामने आ जाता है तो इसे हिकारत भरी नजरों से देखा जाता है। अगर ऐसा शहरों और कस्बों में होता है तो सोचिए कि गाम्रीण इलाकों का क्या हाल होगा?
ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। मैंने खुद अपनी सहेलियों के घरों में ऐसा माहौल देखा है। जहां पीरियड्स आने पर उन्हें 3 दिन के लिए अपने परिवार से अलग जमीन पर सोना पड़ता था (शायद अभी भी पड़ता हो)। उन्हें किचन में जाने या कुछ भी काम करने की मनाही होती है। वे घर में रखे किसी भी सामान को छू नहीं सकती। हालांकि मेरे घर में ऐसा माहौल नहीं था, लेकिन हां भाई या किसी पुरुष के सामने पीरियड्स के बारे में बात नहीं कर सकते थे। शादी के बाद जब मैं ससुराल में आई तो देखा यहां पर मेरे घर से बुरा हाल है। पैड को पूरी तरह छुपाकर रखना, घर के बड़ों के सामने मासिक धर्म का नाम ना लेना, पुरुषों के सामने पैड को हाथ में ना लेकर छुपाकर ले जाना। ये सब देखकर मुझे बहुत अजीब लगा। तब मुझे इस बात का एहसास हुआ कि बचपन से बच्चों के सामने जैसा बर्ताव किया जाता है, वे वही सीखते हैं। वे बड़ों को देखकर जो सीखते हैं उसकी छाप पूरे जीवन भर रहती है।
फिर भले ही वे मेट्रो शहर में रहें या किसी गांव में। मैंने इस बारे में पति से बात की, उन्हें समझाया कि पीरियड्स को एक टैबू की तरह ना लें, यह हर महीने होने वाली एक सामान्य प्रक्रिया है। बार-बार इस बारे में बात करने और समझाने पर मैंने नोटिस किया कि उनका पॉइंट ऑफ व्यू इस बारे में चेंज हुआ। इसी तरह मैं अब मम्मी के सामने अपने छोटे भाई से पीरियड्स के बारे में खुलकर बात करने लगी। पहले तो मम्मी को बड़ा अजीब लगा उन्होंने मुझे टोका कि तू कैसे भाई के सामने इस बारे में बात कर सकती है, लेकिन मेरे और भाई के समझाने पर उनको भी बात समझने में आने लगी कि हम लोग सही कह रहे हैं। इस तरह मैंने तो अपनी राह आसान कर ली, लेकिन उन लड़कियों के बारे में सोचिए जिन्हें घर में बोलने और अपनी बात रखने का तक अधिकार नहीं है। यहां तक जागरूकता और शिक्षा की कमी के चलते कइयों को तो लगता कि पीरियड्स के समय उनके साथ जो बर्ताव (अछूतों की तरह) किया जा रहा है वो सही है।
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पीरियड्स को क्यों माना जाता है गंदा या शर्मनाक? (Why are periods considered embarrassing?)
इस बारे में वॉटर एंड सैनिटेशन ऑर्गनाइजेशन (WASMO) के साथ पांच वर्षों तक काम करने वाले दिव्यांग वाघेला ने हैलो स्वास्थ्य से बात करते हुए बताया, ‘पुराने दिनों में पीरियड्स को मैनेज करने के लिए पर्याप्त मात्रा में सैनिटरी पैड की कमी हुआ करती थी। जिसके कारण महिलाएं घर से संबंधित काम करने में परहेज करती थीं ताकि वे आराम कर सकें, लेकिन बाद में इस बायोलॉजिकल प्रॉसेस को लेकर कई मिथक फैल गए। जिसमें महिलाओं की सामान्य गतिविधियों तक पर रोक लगा दी गई और उन्हें इस अवधि के दौरान गंदा या अशुद्ध माना जाने लगा। आश्चर्य की बात है कि आज भी महिलाएं पीरियड्स के दौरान खुद को अशुद्ध या गंदा मानती हैं और उन कामों को करने से बचती हैं जो शुद्ध माने जाते हैं। पीरियड्स के दौरान जो ब्लड शरीर से बाहर निकलता है वह कंसेप्शन ना होने के कारण बाहर निकल जाता है। अगर महिला गर्भवती हो जाती है तो पीरियड्स रुक जाते हैं और यही ब्लड भ्रूण को पोषण प्रदान करता है तो फिर यह ब्लड अशुद्ध कैसे हो सकता है? और महिला को कैसे अशुद्ध माना जा सकता’।
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जागरूकता की कमी (Lack of awareness) है सबसे बड़ा कारण
पिछले साल 2020 के मामले ने मुझे बुरी तरह हिला दिया था। जिसमें गुजरात के भुज के हॉस्टल में 70 लड़कियों को अपने अंडरगारमेंट उतारकर ये दिखाने के लिए कहा गया था कि वे मेन्ट्रुएशन में है या नहीं। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि उनके हॉस्टल की वॉर्डन ने शिकायत की थी कि कुछ लड़कियां पीरियड्स होने पर निर्धारित किए गए रूल्स को फॉलो नहीं कर रही हैं। नियम के अंतर्गत लड़कियों को मासिक धर्म के दौरान हॉस्टल के किचन, मंदिर और हॉस्टल परिसर में जाने की मनाही थी। यहां तक कि वे अपने साथ रहने वालों को छू भी नहीं सकती थीं। वे बिस्तर पर नहीं सो सकती थीं और हॉस्टल के डाइनिंग रूम में खाना नहीं खा सकती थीं। ऐसे मामलों के कारणों पर अगर हम गौर करें तो इसका सबसे बड़ा कारण अशिक्षा और जागरूकता का अभाव है।
यही बात एक स्टडी में एक बात सामने आई है जिसमें बताया गया है कि भारत में 71 फीसदी महिलाएं पीरियड्स आने से पहले इसके बारे में पूरी तरह अनजान रहती हैं। जब पहली बार मासिक धर्म शुरू होता है तब उन्हें यह पता ही नहीं होता है कि इसका सामना कैसे किया जाए?। ऐसे में मैन्ट्रुएशन हाइजीन को ताक पर रख दिया जाता है। कई लड़कियां पहली बार पीरियड्स आने पर गंदे कपड़े, घास या किसी भी मटेरियल का यूज कर लेती हैं। वहीं कई को लगता है कि उन्हें कोई गंभीर बीमारी हो गई है इसलिए वजायना से ब्लीडिंग हो रही है।
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इन आकंड़ों पर भी डालिए एक नजर
- 2015-16 के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार भारत में सिर्फ 36 प्रतिशत महिलाएं ही सैनिटरी पैड का यूज करती हैं।
- आपको बता दें कि मेन्ट्रुएशन हाइजीन का ध्यान ना रखने पर महिलाओं को सर्वाइकल कैंसर, रिप्रोडक्टिव ट्रैक्ट इंफेक्शन, हेपेटाइटिस बी इंफेक्शन, यीस्ट इंफेक्शन और यूरिनरी ट्रैक्ट इंफेक्शन आदि समस्याएं हो सकती हैं।
- 2014 की एनजीओ की रिपोर्ट के अनुसार हर साल दो करोड़ से ज्यादा लड़कियां मेन्ट्रुएल हायजीन मैनेजमेंट फैसिलिटीज की कमी के चलते स्कूल को छोड़ देती हैं।
- जो स्कूल नहीं छोड़ती वे मेन्ट्रुएशन हाइजीन ना होने के चलते हर महीने पांच दिन स्कूल नहीं जातीं।
जैसा कि हम ऊपर ही बात चुके हैं कि जागरूकता की कमी और सैनिटरी नेकपिन पहुंच से दूर होना पीरियड्स के दौरान महिलाओं के लिए सबसे बड़ी परेशानी है, लेकिन ऐसा नहीं है कि हमारी सरकार या लोग इस दिशा में काम नहीं कर रहे। ऐसी कई शख्सियत हैं जो इस दिशा में लगातार काम कर रहीं हैं और गर्व की बात है कि वे महिलाएं हैं। वर्ल्ड विमेंस डे के मौके पर हम आपको कुछ ऐसी महिलाओं और उनके विचारों के बारे में बता रहे हैं जो दिशा में निरतंर काम कर रही हैं।
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इसमें पहला नाम है दीपांजलि डाल्मिया का। दीपांजलि दिल्ली की ऑन्ट्रप्रेन्योर हैं जिन्होंने हेडे (Heyday) बायोडिग्रेडेबल सैनिटरी पैड को लॉन्च किया था। इसके पहले दीपांजलि मेनहट्टन में फाइनेंशियल कंसल्टेंट के तौर पर काम करती थीं। 2015 में इंडिया आने के बाद उन्होंने पर्सनल हाइजीन पर रिसर्च किया। इस रिसर्च में उन्हें पता चला कि भारत में 87 प्रतिशत महिलाएं सैनिटरी पैड्स का यूज नहीं करती हैं और अगर करती हैं तो उन्हें ये नहीं पता होता कि ये किससे बना है और इसका उपयोग सुरक्षित है या नहीं।
एक पब्लिकेशन को दिए इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि, ज्यादातर सैनिटरी नैपकिन सिंथेटिक और प्लास्टिक से बने होते हैं जो सर्वाइकल कैंसर का कारण बन सकते हैं। इसलिए मैं एक ऐसा प्रोडक्ट लाना चाहती थी जो पूरा तरह ऑर्गैनिक और नैचुरल हो और जो रैशेज और एलर्जी का कारण ना बनें। इसलिए मेरी टीम ने बैम्बू फाइबर का उपयोग करके सैनिटरी पैड का प्रोटोटाइप तैयार किया। जिसके एब्जॉर्ब करने का लेवल अच्छा होता है। इसका टैक्चर भी काफी सॉफ्ट होता है।
Que. भारत में मैन्ट्रुएशन हाइजीन (Menstrual hygiene) की स्थिति के बारे में आपका क्या कहना है?
भारत एक उभरती हुई महाशक्ति है फिर भी यह एक व्यक्तिगत स्वच्छता संकट का सामना कर रहा है। मोटे तौर पर केवल 12% भारतीय महिलाएं ही पीरियड्स पर सैनेटरी नैपकिन का खर्च उठा पाती हैं और यहां तक कि 12% महिलाएं इस बात से अनजान होती हैं कि वे जिस पैड इस्तेमाल कर रहे हैं वे प्लास्टिक, ब्लीच, पॉलिमर, परफ्यूम, एंटीबैक्टीरियल एजेंट और दूसरे टॉक्सिन्स पदार्थों से बने हैं जो गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर (Cervical cancer), मूत्र पथ के संक्रमण (यूरिनरी ट्रैक्ट इंफेक्शन), चकत्ते, एलर्जी और सामान्य त्वचा संवेदनशीलता कारण बन सकते हैं। इतना ही नहीं, हर साल 9000 टन (लगभग 43 करोड़ पैड) गंदे सैनेटरी पैड को एक एकड़ भूमि में डंप किया जाता है, जिसमें डिकंपोजिशन का कोई समाधान नहीं होता है, जिससे पर्यावरण को नुकसान होता है। हमने इसे एक प्रमुख मुद्दे के रूप में देखा और हेयडे के साथ इस समस्या का एक बेहतर समाधान खोजने की चुनौती ली।
Que. आपकी कंपनी ने जो सैनिटरी पैड बनाए हैं? वे किस तरह महिलाओं के लिए फायदेमेंद है?
हमने पैड की सॉफ्टनेस के लिए मकई (कोर्न) के स्टार्च और हाय एब्जॉर्बिंग कैपेसिटी और एंटीबैक्टीरियल प्रॉपर्टीज (Antibacterial properties) का का उपयोग करके काफी रिसर्च और टेस्टिंग के बाद प्रोडक्ट का प्रोटोटाइप डेवलप किया। हम ऑर्गेनिक रॉ मटेरियल का यूज करना चाहते थे ताकि कैमिकल्स और पेस्टिसाइड्स जो बर्थ डिफेक्ट, मिसकैरिज, इंफेक्शन का कारण बनते हैं उन्हें स्किन से दूर रखा जा सके। इसके लिए हमने उन एरियाज को ढूंढा जहां मिट्टी को कैमिकल फ्री रखकर बांस और मकई दशकों से उगाया गया था। ऐसे एरियाज हमें चीन और फिनलैंड में मिले। हमने यूनिट सेट किया और इस तरह भारतीय महिलाओं के लिए यह प्रोडक्ट उपलब्ध कराया गया। ये पैड्स डिसपोजल के 6 महीने के बाद डिकंपोज हो जाते हैं।
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दीपांजलि के बाद अब हम आपको मिलवा रहे हैं दूसरी ऐसी ही महिला से जो इस क्षेत्र में बहुत अच्छा काम करते हुए आगे बढ़ रही हैं। इनका नाम है रिचा सिंह।
रिचा सिंह
ये लो कॉस्ट सैनिटरी ब्रांड नाइन हाइजीन एंड पर्सनल केयर (Niine) की सीईओ हैं। यह कंपनी कम कीमत में पैड बेचने के लिए जानी जाती है। ऐसा भी कहा जाता है इसकी वजह से ही बड़ी कंपनियों ने सैनिटरी पैड्स की कीमतों में कमी की। रिचा सिंह की सबसे बड़ी चुनौति उन वर्गों की महिलाओं तक सैनिटरी नैपकिन को पहुंचाना है जो महंगे पैड्स बेचने वाले ब्रांड्स से अभिभूत है या फिर दूसरे प्रोडक्ट्स से अंजान हैं।
एक पब्लिकेशन को दिए इंटरव्यू में रिचा सिंह ने मेंस्ट्रुशन हाइजीन, पीरियड्स एक टैबू से विषयों पर अपनी राय रखी।
Que. महिलाएं आज भी पीरियड्स (Periods) पर बात करने में झिझक महसूस करती हैं। आज भी पीरियड्स को टैबू माना जाता है (Periods are considered taboo)। आपका क्या कहना है इस बारे में?
यह एक सामान्य शीरीरिक प्रक्रिया है, जो हर महिला के जीवन का हिस्सा है। इसको लेकर शर्म या झिझक कैसी? यह एक बायोलॉजिकल प्रॉसेस (Biological process) है। जिसके बारे में हम सभी ने बचपन में पढ़ा है। जब पीरियड्स को पीरियड्स क्यों नहीं कहते। ‘टाइम ऑफ द मंथ’, ‘डाउन होना’ ऐसे शब्दों से क्यों संबोधित करते हैं। जब तक हम महिलाएं ही ऐसा करेगी तो इसमें कुछ सुधार नहीं होगा। जब सिर दर्द को सिर दर्द और सर्दी को सर्दी बोला जाता है तो पीरियड्स को पीरियड्स क्यों नहीं बोल सकते। मेरा ऐसा मानना है कि प्रजनन क्षमता का संकेत किसी के लिए शर्मनाक नहीं होना चाहिए।
Que. आप चूंकि इस क्षेत्र में काम कर रही हैं, तो बताइए कि सैनिटरी पैड (Sanitary pad) के इस्तेमाल को लेकर महिलाओं का कैसा रवैया है?
बात सिर्फ गांवों की नहीं है, शहरों की स्थिति भी बहुत खराब है। महिलाएं अभी भी पुराने कपड़े का यूज करती हैं। जिससे कई प्रकार के संक्रमण होने की आशंका होती है। कुछ महिलाओं के पास इतने रूपए नहीं होते कि वे सैनिटरी नैपकिन खरीद सकें। वहीं कुछ महिलाएं सैनिटरी नैपकिन पर ज्यादा रुपए खर्च नहीं करना चाहतीं। जागरूकता की कमी ही इसका सबसे बड़ा कारण है।
Que. मेंस्ट्रुअल हाइजीन (Menstrual hygiene) को लेकर आप क्या कहना चाहेंगी?
मेस्ट्रुअल हाइजीन के लिए जरूरी है कि सभी इस विषय की गंभीरता को समझें और अपने आसपास के लोगों को शिक्षित करें। इसके लिए नाइन सैनिटरी काम कर रहा है। हम ज्यादा से ज्यादा महिलाओं और पुरुषों को जोड़ रहे हैं ताकि वे खुद शिक्षित हो और लोगों को भी इस बारे में शिक्षित कर सकें।
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