गर्भावस्था के पहले ट्राइमेस्टर में महिला का ब्लड टेस्ट और अल्ट्रासाउंड किया जाता है। इस टेस्ट से भ्रूण में जन्म जातीय विसंगतियों के बारे में पता लगाया जाता है। यह स्क्रीनिंग टेस्ट अकेले या दूसरे टेस्ट के साथ किए जा सकते हैं।
अल्ट्रासाउंड (या सोनोग्राम) टेस्ट में आपको बिलकुल भी दर्द का अहसास नहीं होगा। इसमें हाई फ्रीक्वेंसी साउंड वेव्स (sound waves) का इस्तेमाल करके गर्भाशय में शिशु के विकास का आंकलन किया जाता है। 10 से 12 हफ्ते पूरे होने से पहले अल्ट्रासाउंड में बच्चे की धड़कनों को नहीं सुना जा सकता है। प्रेग्नेंसी को कितने दिन हो गए हैं, यह जानने का अल्ट्रासाउंड एक बेहतर तरीका है।
छह से 10 हफ्तों के बीच पहला अल्ट्रासाउंड टेस्ट किया जाता है। अल्ट्रासाउंड के जरिए बच्चे के पिछले हिस्से में बढ़ते फ्लूड और उसके गाढ़ेपन की जांच की जा सकती है। इसके जरिए भ्रूण की नाक की हड्डी की जांच भी की जा सकती है। डाउन सिंड्रोम जैसी समस्या में गुणसूत्रों में असमानता होने के वजह से बच्चे की नाक विजुअलाइज्ड नहीं होती है। यह जांच प्रेग्नेंसी के 11 और 13 हफ्तों के बीच होती है।
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मेटेरनल सीरम (ब्लड) टेस्ट
यह टेस्ट गर्भवती महिलाओं के खून में पाए जाने वाले दो तरह के पदार्थों का आंकलन करता है। प्रेग्नेंसी से संबंधित प्लाजमा प्रोटीन ए, जो प्लेसेंटा शुरुआती दिनों में बनाता है। महिला के खून में इसका असामान्य स्तर गुणसूत्रीय विकृति से जुड़ा होता है।
ह्यूमन क्रोनिक गोनाडोट्रोपिन यह एक हार्मोन है। प्रेग्नेंसी के शुरुआती दिनों में प्लेसेंटा इसका उत्पादन करता है। खून में इसका असामान्य स्तर होने से गुणसूत्रीय विकृति बढ़ने का खतरा होता है।
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सेकेंड ट्राइमेस्टर प्रेग्नेंसी के दौरान टेस्ट
दूसरे ट्राइमेस्टर में कई तरह के ब्लड टेस्ट किए जाते हैं। इन्हें मार्कर्स के नाम से भी जाना जाता है। यह मार्कर्स शिशु में संभावित जन्म जातीय विसंगतियों और जीन में अनुवांशिक स्थितियों के बारे में जानकारी उपलब्ध कराते हैं। यह टेस्ट प्रेग्नेंसी के 15 और 20 हफ्तों के बीच में सामान्य ब्लड सैंपल से किए जाते हैं।