अमेरिका के सबसे बड़े इंडियानापोलिस में स्थित मेडिकल स्कूल के छात्र इस नए स्टेथोस्कोप का इस्तेमाल सीखते हैं। लेकिन, एक कार्यकारी सहयोगी डीन डॉ पॉल वैलाच द्वारा पिछले साल यहां शुरू किए गए एक कार्यक्रम के तहत वे हाथ से इस्तेमाल किए जाने वाले अल्ट्रासाउंड का भी प्रशिक्षण लेते हैं। पॉल ने पांच साल पहले जॉर्जिया के मेडिकल कॉलेज में भी इसी तरह के प्रोग्राम में भाग लिया था और कहा था कि अगले दशक में हाथ में लेकर इस्तेमाल होने वाले अल्ट्रासाउंड उपकरण नियमित शारीरिक परीक्षा का हिस्सा बन जाएंगे।
उन्होंने कहा, “यह डिवाइस शरीर में त्वचा के अंदर देखने की हमारी क्षमता को और बढ़ाता है।” अभी भी कुछ लोग स्टेथोस्कोप को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। वे कहते हैं कि अगली पीढ़ी के डॉक्टर गले में स्टेथोस्कोप और जेब में एक अल्ट्रासाउंड मशीन लिए दिखाई देंगे।
स्टेथेस्कोप का अविष्कार
नए डिजीटल स्टेथोस्कोप में कुछ-कुछ पुराने स्टेथोस्कोप की ही तरह दिखते हैं। इस स्टेथेस्कोप को 1800 के दशक की शुरुआत में फ्रेंचमैन रेने लेनेक (Frenchman Rene Laennec) ने आविष्कार किया था। लेकिन, ये दोनों एक ही तरह से काम करते हैं।
लेनेक का स्टेथेस्कोप में लकड़ी की एक खोखली नली थी, जो लगभग एक फुट लंबी थी, जिससे एक ओर से छाती के संपंर्क में लाने और दूसरी ओर से कान में लगाने से दिल और फेफड़े की आवाज सुनना आसान हो जाता था। रबर ट्यूब, इयरपीस और कोल्ड मैटल (जिसे छाती पर रखा जाता है) को बाद में इससे जोड़ा गया, जिससे आवाज साफ सुनी जा सके।
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जब स्टेथोस्कोप को शरीर पर रखकर दबाया जाता है, तो ध्वनि तरंगें डायाफ्राम बनाती हैं। उपकरण का प्लेन मैटल यानि की डिस्क वाला हिस्सा और घंटी के आकार का हिस्सा वाइब्रेट करता है। यह ध्वनि नलियों के माध्यम से कानों तक ध्वनि तरंगों को पहुंचाती है। लेकिन शरीर की आवाजों को सुनना और समझने के लिए एक संवेदनशील कान की जरुरत होती है।