ऑटिज्म जिसे ऑटिज्म डिसॉर्डर भी कहते हैं एक विकास संबंधी विकार है जो जन्म या जन्म के बाद शुरुआती सालों में ही हो जाता है। आमतौर 3 साल की उम्र के पहले ही बच्चों को ये बीमारी हो जाती है। ऑटिज्म प्रभावित लोग किसी भी तरह से सामाजिक बोलचाल, व्यवहार या मेलजोल नहीं रखते ना ही इसमें रूचि लेते हैं। ऑटिज्म और आनुवंशिकी को लेकर कई शोध किए गए और उसपर आधारित कई थ्योरी हैं । लेकिन यह विषय इतना बड़ा है कि इसमें रिसर्च अब भी अधूरी मानी जाती है। हर थ्योरी पर और गहन अध्ययन और चिंतन जारी है। इस आर्टिकल में आप ऑटिज्म की कुछ ऐसी ही थ्योरी के बारे में जानेंगे।
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आनुवंशिकी थ्योरी (The Genetics Theory)
कई शोधकर्ता दावा करते है कि ऑटिज्म और आनुवंशिकी का संबंध गहरा है। हालांकि, अब तक ऐसा जीन नहीं पाया गया जिसकी वजह से ये बीमारी शुरू हुई हो। पर ऐसा मत है कि ये किसी तरह के जीन की मिलावट या जींस के आपसी मेलजोल से उत्पन्न हुई होगी, क्योंकि ज्यादातर मामलों में ऑटिस्टिक बच्चों के माता-पिता सामान्य थे। वहीं एक रिसर्च के मुताबिक जीन संबंधी विकार दिमागी प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। खासतौर पर वो जीन जो हमारी भावनाओं और सामाजिक व्यवहार से संबंध रखते हैं
ऑटिज्म के लिए जिम्मेदार जींस की पहचान उसके प्रभावी इलाज में मददगार हो सकती है। सटीक तौर पर नहीं पर साइंटिस्ट्स जिम्मेदार जींस के कुछ प्रकारों को खोजकर उनपर अध्ययन कर रहे हैं।
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इस वजह से भी बढ़ जाता है ऑटिज्म का खतरा
प्रेग्नेंसी के दौरान ऐसी कई समस्याएं होती हैं, जिनके कारण ऑटिज्म का खतरा बढ़ सकता है। ज्यादातर लोग इन समस्याओं से अंजान होते हैं। इसमें कई बीमारी और वायरस भी शामिल हैं। इस आर्टिकल में हम यही जानने वाले हैं कि प्रेग्नेंसी के दौरान किन वजहों से बच्चे के ऑटिस्टिक होने की संभावना बढ़ जाती है।
रूबेला वायरस (Rubella virus)
प्रेग्नेंसी के दौरान अगर मां को रुबेला इंफेक्शन हो जाए तो इस बच्चे के दिमागी विकास में बाधा आ जाती है नतीजन बच्चा ऑटिज्म के साथ पैदा होता है। इसके अतिरिक्त बच्चा जन्म के साथ कई मनोविकार और शारीरिक अक्षमता के साथ पैदा हो सकता है।
थायरॉइड (thyroid)
प्रेग्नेंसी के दौरान थायरॉइड की समस्या भी बच्चे के लिए घातक हो सकती है। अगर प्रेग्नेंसी के 8वें से 12वें हफ्ते के बीच मां के शरीर में थायरॉक्सिन की कमी हो जाए तो इसका सीधा असर गर्भ में पल रहे बच्चे के दिमागी विकास पर होता है, जिसकी वजह से ऑटिज्म होता है।
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डायबिटीज (Diabetes)
प्रेग्नेंसी के दौरान अगर मां को डायबिटीज हो जाए तो यह भी बच्चे के लिए एक बड़ा खतरा है। 2009 की एक रिसर्च में सामने आया था कि डायबिटीज की वजह से ऑटिज्म का रिस्क दोगुना हो जाता है।
प्रेग्नेंसी के दौरान दवाईयां
प्रेग्नेंसी के पहले या उसके दौरान मां कि किसी बीमारी के लिए दी गई कुछ दवाईयों से भी बच्चे के मानसिक विकास में परेशानी हो सकती है। कुल मिलाकर ऑटिज्म के मामले में साइंटिस्ट्स उन खास जींस की खोज और अध्ययन में लगे हैं, जिनकी मदद से इसका प्रभावी इलाज बनाया जा सके। अगर ऐसा होता है तो इलाज के साथ-साथ ऐसे टेस्ट भी बनाए जा सकेंगे जिससे इस बीमारी का पहले ही पता लग जाए और बच्चे के नुकसान पहुंचने के पहले ही इसका इलाज शुरू हो सके।
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ऑटिज्म को नियंत्रित कैसे किया जा सकता है?
- अगर आपके बच्चे को किसी भी चीज से डर लगता है, तो उसे उन चीजों से दूर रखें।
- समय-समय पर डॉक्टर से जांच करवाएं और रिपोर्ट्स संभाल कर रखें।
- उसके खानपान का ख्याल रखें।
- परिवार में सभी को उसके साथ आम बच्चों जैसा ही व्यवहार करने को कहें।
- अगर बच्चा कम उम्र का है, तो कोशिश करें कि उसे अकेले न छोड़ें।
- साइकोथेरिपी की मदद से उसके अशांत स्वभाव के कारण को समझने की कोशिश करें।
- उसकी रूचि के क्षेत्र को पहचाने और उसे बढ़ावा दें।
- ऑटिस्टिक बच्चों को बहुत तेज आवाज या शोर से डर लगता है। ऐसे में उनको इस प्रकार की आवाज से दूर रखना चाहिए। यदि आपके घर में कोई बच्चा ऑटिस्टिक है, तो आपको बहुत तेज आवाज होने वाले किसी भी कार्य से बचना चाहिए।
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ऑटिज्म में बच्चे के डायट का कैसे रखें ध्यान?
जब आपके बच्चे को ऑटिज्म होता है, तो वो कई तरह के खाद्य पदार्थ, उनके स्वाद, गंध, बनावट या रंग को देखकर संवेदनशील हो सकता है और वह उसे खाने से इंकार कर देता है। ऐसे में नए तरह का खाना खिलाना भी एक चुनौती होती है, इसलिए इस दिशा में धीरे-धीरे कदम उठाने चाहिए। इसके लिए आप एक खास तरीका अपना सकते हैं। जब आप शॉपिंग पर जाएं, तो अपने बच्चे को साथ ले जाने की कोशिश करें और उसे अपनी पसंद का खाना चुनने को बोलें। जब आप वो खाना घर लाएं, तो उसे संतुलित तरीके से बनाने की कोशिश करें। हो सकता है कि खाना बनने के बाद बच्चा खाने से इंकार कर दे। ये बेहद सामान्य बात है, उसे इस चीज से परिचित होने में वक्त लग सकता है। ऑटिज्म में न्यूट्रिशन टिप्स को फॉलो करके इसके लक्षणों को कम किया जा सकता है।
ऑटिज्म में कुछ थेरिपी कर सकती हैं मदद
ऑटिज्म बच्चों की सही देखभाल के साथ ही उनकी थेरेपी कराना भी बेहद आवश्यक होता है। ऑटिज्म बच्चे की मदद के लिए थेरेपी ही एकमात्र सबसे बड़ा सपोर्ट हो सकता है। क्योंकि ऑटिज्म को इलाज अब-तक मुमकिन नहीं हो पाया है। इसलिए थेरेपी को ही सबसे बड़ा सपोर्ट माना जाता है। ऑटिज्म के लिए कई तरह की थेरेपी दी जाती है। क्योंकि ऑटिज्म कई प्रकार के होते हैं, इसलिए उनके लिए यही थेरेपी निर्धारित कि जाती है। ऑटिज्म के लिए थेरेपी तीन प्रकार के हो सकते हैं।
पॉजिटिव बिहेवियरल सपोर्ट (PBS) Positive behavioural and support
पीबीएस यानी पॉजिटिव बिहेवियरल सपोर्ट एक ऐसी तकनीक है, जिसके अतंर्गत ऑटिज्म का इलाज किया जाता है। इसमें व्यक्ति के व्यवहार को उसके आसपास के वातावरण में बदलाव कर उसे सकारात्मक बनाने के प्रयास किए जाते हैं। पहले देखा जाता है कि किस वजह से रोगी के व्यवहार में बदलाव आ रहा है। इसके बाद रोगी को नई चीजें सिखाई जाती हैं और अच्छा व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
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डिस्क्रीट ट्राइल ट्रेनिंग (DTT) Discrete trial training
डिस्क्रीट ट्राइल ट्रेनिंग के अंतर्गत ऑटिज्म का इलाज करने के लिए एक टीचर रोगी को एक के बाद एक लेसन देता है। इसके बाद रोगी से इसके जवाब और सही व्यवहार के बारे में पूछा जाता है। सही जवाब देने और उचित व्यवहार करने पर उसे गिफ्ट देकर प्रोत्साहित किया जाता है।
शिक्षात्मक थेरिपी (Educational therapy)
इस थेरिपी में ऑटिज्म रोगी के कौशल विकास और संचार कौशल को विकसित करने की दिशा में काम किया जाता है। इसमें एक्सपर्ट्स की टीम खासतौर पर रोगी के लिए केंद्रित प्रोग्राम तैयार करते हैं। हैलो स्वास्थ्य किसी भी तरह की मेडिकल सलाह नहीं दे रहा है। अगर आपको किसी भी तरह की समस्या हो तो आप अपने डॉक्टर से जरूर पूछ लें।
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