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प्रेग्नेंसी के दौरान अल्फा फिटोप्रोटीन टेस्ट(अल्फा भ्रूणप्रोटीन परीक्षण) करने की जरूरत क्यों होती है?

के द्वारा मेडिकली रिव्यूड डॉ. प्रणाली पाटील · फार्मेसी · Hello Swasthya


Mousumi dutta द्वारा लिखित · अपडेटेड 02/09/2020

    प्रेग्नेंसी के दौरान अल्फा फिटोप्रोटीन टेस्ट(अल्फा भ्रूणप्रोटीन परीक्षण) करने की जरूरत क्यों होती है?

    आदिकाल से यह मान्यता चली आ रही है कि नारी तब तक पूरी नहीं होती जब तक वह माँ नहीं बन जाती। लेकिन यह परिपूर्णता का पथ उतना सरल नहीं हैं काँटों से भरा हुआ है। हर नारी के लिए माँ बनने का एहसास इन काँटों को फूल जैसा महसूस कराता है। लेकिन माँ के दिल की ख्वाइश यही होती है कि भले ही उसे कितना भी कष्ट हो बच्चा ताउम्र स्वस्थ रहे। इसीलिये डॉक्टर बच्चे के सेहत को ध्यान में रखकर ही तरह-तरह के परीक्षण करते हैं उनमें से एक है अल्फा फिटोप्रोटीन टेस्ट। इस परीक्षण को अल्फा फिटोप्रोटीन टेस्ट (AFP) या मेटरनल सीरम अल्फा फिटोप्रोटीन ( Maternal serum alpha fetoprotein) भी कहते हैं।  

    अल्फा भ्रूणप्रोटीन परीक्षण के नाम से डरने की जरूरत नहीं है। यह टेस्ट बहुत ही सरल होता है। अल्फा फिटोप्रोटीन टेस्ट के बारे में बात करने से पहले यह टेस्ट है क्या इसको जान लेते हैं। असल में अल्फा फिटोप्रोटीन एक तरह का प्लाज्मा प्रोटीन होता है जो एम्ब्रायोनिक यॉक सैक (भ्रूण के जर्दी की थैली) और फेटल लिवर से उत्पादित होता है। इस टेस्ट में अल्फा फिटोप्रोटीन (एएफपी) के लेवल की जांच होती है। जिससे यह पता चलता है कि सीरम, एमनियोटिक फ्लूइड और यूरीन में इसका स्तर कितना है। इसके स्तर के असमानता के कारण शिशु के जन्म से विकलांग होने, क्रोमोजोम में असमानता का संकेत मिलता है। इसके अलावा इस टेस्ट से वयस्कों में ट्यूमर होने और पैथोलॉजी का भी पता लगाया जाता है। गर्भ में पहली तिमाही से शुरू होकर गर्भकाल के 32 सप्ताह तक भ्रूण विकसित होना शुरू होता है। इसलिए इन्हीं हफ्तों में असमानताओं का पता लगाना आसान होता है।

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    अल्फा भ्रूणप्रोटीन परीक्षण करने की प्रक्रिया

    अल्फा भ्रूणप्रोटीन परीक्षण में खून की जांच की जाती है। आम तौर पर जिस तरह से ब्लड टेस्ट किया जाता है उसी तरह नसों से ब्लड का सैंपल लिया जाता है। इसमें सीरम अल्फा लेवल का पता लगाया जाता है। इसके लिए मैटरनल ट्रिपल या क्वाड्रूप्ल स्क्रीनिंग टेस्ट की जाती है।

    शायद आपको पता नहीं लेकिन इसमें मूत्र का सैंपल भी लिया जाता है। लेकिन इसमें सीरम तुलनामूलक रूप से कम होता है। इस टेस्ट को करने के लिए एम्नियोसेंटेसिस की जरूरत होती है जिससे अल्फा फिटोप्रोटीन के स्तर का पता लगाता है।

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    शायद आप यह जानने के लिए उत्सुक होंगे कि इस टेस्ट को करने के लिए ब्लड का सैम्पल कैसे लिया जाता है। चलिये यह भी आपको संक्षेप में बता देते हैं कि जिससे कि आपका डर दिल से दूर हो जाये। डॉक्टर ब्लड लेने के पहले आपका नाम, परिचय आदि  की जानकारी लेता है। इसके बाद आपको सुई से खून लेते समय थोड़ा दर्द होगा इस बारे में पहले ही आगाह करता है। इससे रोगी का अशांत मन थोड़ा आश्वस्त होता है। मरीज का हाथ आदि धोने के लिए कहता है ताकि किसी भी प्रकार का जर्म न रहें। उसके बाद रोगी को अपना हाथ ऊपर करने के लिए कहते हैं। बांह के ऊपर की ओर बैंड से बांध दिया जाता है। उसके बाद जो नस उभर कर आता है उससे खून को निकालने की तैयारी की जाती है। सुई को लगाने से पहले उस जगह को रूई में अल्कोहल लगाकार साफ किया जाता जिससे कि किसी भी प्रकार इंफेक्शन न हो। अब ब्लड सैंपल को लेने के बाद सुई को नस से निकाल लेते हैं और  कुछ देर के लिए रूई से दबाकर रख देते है । ब्लड सैंपल जिस बोतल में लिया जाता है उस पर मरीज का नाम लिख दिया जाता है। इस व्याख्या से आपको पता चल ही गया होगा कि इस टेस्ट के लिए आपको कुछ ज्यादा तैयारी करने की जरूरत नहीं पड़ती है। 

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    अल्फा भ्रूणप्रोटीन परीक्षण करना क्यों है जरूरी?

    शायद आप सोच रहे होंगे कि आखिर अल्फा फिटोप्रोटीन करने की जरूरत ही क्यों है। इसको न करे तो क्या होगा। क्योंकि वैसे प्रेग्नेंसी के दौरान बहुत तरह के ब्लड टेस्ट और सोनोग्राफी करने की जरूरत तो पड़ती ही है। 

    जैसा कि पहले ही बताया गया है कि अल्फा फिटोप्रोटीन एक तरह प्रोटीन होता है जो लिवर से उत्पन्न होता है। शायद आपको पता नहीं कि गर्भ में शिशु के विकास के दौरान अल्फाफिटो प्रोटीन प्लासेंटा के द्वारा मां के ब्लड में चला जाता है। इस टेस्ट से गर्भवती महिला में इसी प्रोटीन के लेवल की जांच की जाती है कि वह ज्यादा है या कम। क्योंकि अल्फाफिटो प्रोटीन के स्तर के कम या ज्यादा होने से शिशु के जन्मजात दोष या दूसरे जटिल अवस्ठाओं के होने की संभावना रहती है। इन जटिलताओं में शामिल है-

    • सबसे पहली परेशानी यह होती है कि डिलीवरी के सही डेट का पता नहीं चल पाता है क्योंकि प्रेग्नेंसी के दौरान अल्फा फिटोप्रोटीन का लेवल बदलता रहता है। हो सकता है प्रोटीन के स्तर के बदलाव के कारण समय से पहले डिलीवरी हो जाये। इस बात का खतरा प्रोटीन के स्तर के असमानता के कारण बन सकता है। 
    • डाउन सिंड्रोम जैसा जेनेटिक डिसऑर्डर हो सकता है जिसके कारण शिशु का बौद्धिक विकास अच्छी तरह से नहीं हो पाता है।
    • न्यूरल ट्यूब डिफेक्ट, एक ऐसी कठिन अवस्था है जिसके कारण शिशु की रीढ़ की हड्डी या मस्तिष्क के विकास में बाधा उत्पन्न हो सकता है।
    • गर्भ में जुड़वा या उससे भी ज्यादा बच्चे के धारण करने का कारण बन सकता है।

    अल्फा फिटोप्रोटीन के स्तर के इसी असंगता को समझने के लिए यह टेस्ट करना जरूरी हो जाता है। इस टेस्ट को करने से भ्रूण में ही शिशु के जन्म दोष और जेनेटिक डिसऑर्डर के बारे में पता चल सकता है जिस न्यूरल ट्यूब डिफेक्ट या डाउन सिंड्रोम के होने के संकेत को पहचाना जा सके। अमेरिकन प्रेग्नेंसी एसोसिएशन का मानना है कि हर गर्भवती महिलाओं को 15वें से 20 वें सप्ताह के अंदर अल्फा फिटोप्रोटीन टेस्ट करवाना चाहिए। यह अल्फा भ्रूणप्रोटीन परीक्षण विशेष रूप से उन महिलाओं के लिए करना जरूरी होता है जिनके परिवार में बर्थ डिफेक्ट होने का इतिहास होता है। यदि गर्भवती महिला की उम्र 35 साल या उससे भी ज्यादा है तो उसके लिए यह टेस्ट अनिवार्य है। इसके अलावा प्रेग्नेंट वुमन अगर डायबिटीक है तो यह परीक्षण करवाना अवश्यंभावी हो जाता है। यह टेस्ट करवाना उन गर्भवती महिलाओं के लिए भी जरूरी हो जाता है जिन्होंने गर्भावस्था के दौरान कोई अहितकारी दवा ली हो या चिकित्सा करवाया हो। इन्हीं सब कारणों से अल्फा भ्रूणप्रोटीन परीक्षण करना जरूरी बन जाता है।  इस टेस्ट का रिजल्ट एक दो हफ्ते में ही लैब से आ जाता है। 

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    अल्फा फिटोप्रोटीन टेस्ट से खतरा या साइड इफेक्ट

     अब तो सबके मन में यह बात जरूर आयेगी कि क्या इस टेस्ट को करने से कोई माँ या गर्भ में पल रहे शिशु को नुकसान पहुँच सकता है? या अल्फा भ्रूणप्रोटीन परीक्षण को करने के बाद कुछ साइड इफेक्ट हो सकता है। हालांकि अल्फाफिटोप्रोटीन टेस्ट बहुत ही एहतियात बरत के ही किया जाता है। इसके लिए डॉक्टर कोई विशेष तैयारी की बात भी नहीं कहते हैं। मरीज को सुई चुभाने के समय जितनी तकलीफ होती है बस उतनी ही तकलीफ होती है। यह तकलीफ किसी भी मां बनने वाली महिला के लिए कुछ नहीं होता है। लेकिन सुई लगाने के पहले मरीज के रक्त के पतला या गाढ़ा के अनुपात के बारे में पुछा जा सकता है। अगर किसी दवा के लेने के कारण ब्लड थिन हुआ तो ब्लीडिंग होने की संभावना हो सकती है। 

    टेस्ट करने से पहले मरीज को यह समझा दिया जाता है कि यह एक स्क्रीनिंग परीक्षण है। क्योंकि जो रिजल्ट निकलेगा उसी के आधार पर आगे दूसरे परीक्षण किये जायेंगे कि नहीं इस बात का फैसला लिया जायेगा। इसलिए आप समझ ही सकते हैं कि इस अल्फा फिटोप्रोटीन टेस्ट के दौरान किसी भी प्रकार के खतरे की आशंका नहीं रहती है। किसी किसी मरीज को हल्का बेहोशी जैसा महसूस या रक्तस्राव हो सकता है। लेकिन आप इस बात के लिए निश्चिंत रह सकते हैं कि अगर हर तरह के हाइजिन का ध्यान रख कर यह परीक्षण किया गया है तो किसी भी प्रकार के संक्रमण मां या शिशु के होने की संभावना ना के बराबर होती है। इसलिए अल्फा भ्रूणप्रोटीन टेस्ट को लेकर ज्यादा टेंशन करने की कोई जरूरत नहीं होती है। 

    हां, एक दूसरा टेस्ट है एमनियोसेंटेसिस जिससे डाउन सिंड्रोम या किसी भी प्रकार के बर्थ डिफेक्ट का पता लगाने के लिए किया जाता है। उस टेस्ट को करने से गर्भपात यानि मिसकैरेज होने का थोड़ा खतरा होता है। क्योंकि इस टेस्ट को करने से गर्भ में पल रहे शिशु को नुकसान पहुंचने की आशंका रहती है।

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    अल्फा फिटोप्रोटीन टेस्ट करने के बाद क्या पता चलता है?

    अब बात आती है कि अगर अल्फा भ्रूणप्रोटीन परीक्षण का फल सकारात्मक आया तो क्या होगा। कहने का मतलब यह है कि अगर रिजल्ट में एएफपी का लेवल नॉर्मल लेवल से ज्यादा आया तो शिशु को न्यूरल ट्यूब डिफेक्ट जैसे स्पाइना बिफिडा होने का खतरा हो सकता है। इस अवस्था में रीढ़ की हड्डी में समस्या हो सकता है या ब्रेन का डेब्लेप्मेंट सही तरह से नहीं हो पाता है। इस वजह से शिशु का मस्तिष्क सही तरह से काम नहीं कर पाता है। 

    यदि रिजल्ट में प्रोटीन का स्तर कम मिलता है तो उसको जेनेटिक डिसऑर्डर होने का खतरा भी होता है यानि डाउन सिंड्रोम होने की आशंका होती है। इस अवस्था के कारण शिशु का बौद्धिक विकास नहीं हो पाता है। 

    लेकिन यह भी बात ध्यान रखने की है कि हमेशा ऐसा नहीं होता है। एएफपी का लेवल नॉर्मल नहीं होने पर शिशु को समस्या हमेशा हो ऐसा नहीं है। ऐसा होने पर हो सकता है गर्भवती महिला एक से ज्यादा बच्चों को जन्म दे। या डिलीवरी का समय गलत साबित हो। क्योंकि प्रोटीन के स्तर के असामनता के कारण डॉक्टर निर्धारित डिलीवरी का डेट स्थिर नहीं कर पाते हैं। इसके अलावा आपको फॉल्स पॉजिटिव रिजल्ट भी मिल सकता है। यह भी हो सकता है कि रिजल्ट समस्या को प्रदर्शित तो कर रहा है, लेकिन शिशु का जन्म सही तरह से और स्वस्थ रूप में हो। डॉक्टर इस टेस्ट से प्रोटीन का जो स्तर देखता है उस आधार पर निदान के लिए दूसरे टेस्ट करने की फैसला लेते हैं। 

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    अल्फा फिटोप्रोटीन टेस्ट अगर पोजिटिव आये तो क्या है निदान

    अल्फा भ्रूणप्रोटीन परीक्षण अगर पोजिटिव आता है तो डॉक्टर उसी आधार पर दूसरे परीक्षण की बात सोचते हैं। लेकिन यह भी व्यक्ति के शारीरिक और शरीर के भीतरी संरचना पर निर्भर करता है। 

    एएफपी टेस्ट के सिरिज में पेरिनेटल टेस्ट होता है उसको मल्टिप्ल मार्कर या ट्रिपल स्क्रीन टेस्ट कहते हैं। अल्फाफिटोप्रोटीन  टेस्ट के अलावा ट्रिपल स्क्रीन टेस्ट किया जाता है उसमें एचसीजी, प्लासेंटा से उत्पादित हार्मोन और एस्ट्रिऑल एक तरह का एस्ट्रोजन का होता है जो फीटस से बनता है। इस तरह के परीक्षण डाउन सिंड्रोम और दूसरे जेनेटिक डिसऑर्डर का पता लगने के लिए किया जाता है। 

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    अगर आपके शिशु को इस तरह के बर्थ डिफेक्ट होने की आशंका होती है तो एक दूसरे तरह के टेस्ट करने की सलाह दी जाती है वह है सेल-फ्री डीएनए।  यह भी एक तरह का ब्लड टेस्ट होता है जो प्रेग्नेंसी के दसवें हफ्ते में की जाती है। इस टेस्ट से भी डाउन सिंड्रोम या कुछ विशेष जेनेटिक डिसऑर्डर का पता लगाया जा सकता है। एमनियोसेंटेसिस भी एक और टेस्ट होता है जिसके बारे में पहले भी बताया गया है। इस टेस्ट में भ्रूण के चारो तरफ जो एमनियोटिक फ्लूइड होता है उसको डॉक्टर सुई के मदद से नमूना लेने के लिए लेते हैं और उसकी जांच करते हैं। इससे शिशु का जेनेटिक डिसऑर्डर का पता चल जाता है। लेकिन मुश्किल की बात यह है कि इस टेस्ट से भ्रूण को नुकसान पहुँचने की संभावना रहती है।

    अब तक चर्चा से आपको पता चल ही गया है कि अल्फा भ्रूणप्रोटीन परीक्षण क्यों किया जाता है। इसलिए अपने शिशु के सुरक्षा के लिए इस टेस्ट को करने से कभी न कतराये और न ही नजरअंदाज करें। 

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