आइलेट सेल ट्रांसप्लांट, ऑर्गन डोनर के शरीर से सेल्स लेकर दूसरे के शरीर में डालने की प्रक्रिया है। साइंटिफिक तौर पर इसका इस्तेमाल टाइप 1 डायबिटीज की बीमारी को ठीक करने के लिए किया जाता है। इस आर्टिकल में हम जानेंगे कि आइलेट सेल ट्रांसप्लांट क्या है, इसे कैसे किया जाता है, इसके लाभ और हानि क्या हैं?
पैंक्रिअटिक आइलेट और बीटा सेल्स को समझें
आइलेट सेल ट्रांसप्लांट के बारे में जानने से पहले पैंक्रिअटिक आइलेट और बीटा सेल्स को समझना होगा। पैनक्रियाज हमारे एब्डॉमिन का हिस्सा होती हैं, जो हाथ के आकार की साइज की होती हैं। यह स्टमक के पिछले हिस्से में पाई जाती हैं। शरीर में मौजूद यह पैनक्रियाज खास प्रकार के जूस का उत्पादन करती हैं, जो खाने को पचाने में मदद करते हैं। वहीं यह हार्मोन बनाने का भी काम करती हैं। यह इंसुलिन और ग्लूकागन (glucagon) नामक हार्मोन बनाती है, जो ब्लड शुगर लेवल को मेनटेन करने के साथ शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है।
पैनक्रियाज सेल्स का समूह होती हैं, जिसे आइलेट ऑफ लैंगरहैंस ( islets of Langerhans) कहा जाता है। आइलेट बीटा सेल्स के साथ विभिन्न प्रकार के सेल्स के द्वारा तैयार होते हैं। बीटा सेल्स इंसुलिन निर्माण में अहम रोल अदा करता है। इंसुलिन एक प्रकार का हार्मोन है, जो शरीर को ऊर्जा प्रदान करने के लिए ग्लूकोज को एनर्जी में परिवर्तित करता है। ऑपरेशन की प्रक्रिया में इन्हीं आइलेट का ट्रांसप्लांट किया जाता है, जिसे आइलेट सेल ट्रांसप्लांट कहते हैं। ऐसा करने के बाद यदि ऑपरेशन सफल रहता है तो मरीज को इंसुलिन की जरूरत नहीं पड़ती है।
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आइलेट सेल ट्रांसप्लांट की प्रक्रिया को जानें
आइलेट सेल ट्रांसप्लांट के तहत मृत ऑर्गन डोनर के शरीर से आइलेट को निकालकर प्रभावित व्यक्ति के शरीर में डाला जाता है। इस दौरान इस बात का ख्याल रखा जाता है कि आइलेट प्यूरिफाइड हो, सही प्रकार से काम कर रहे हों, वहीं एक से दूसरे व्यक्ति के शरीर में डालने लायक हो। एक बार ट्रांसप्लांटेशन की प्रक्रिया को अपनाने के बाद आइलेट में मौजूद बिटा सेल्स सामान्य रूप से इंसुलिन का निर्माण करने लगते हैं। ऐसा कर शोधकर्ता मानते हैं कि आइलेट ट्रांसप्लांट कर टाइप 1 डायबिटीज की बीमारी से ग्रसित व्यक्ति को रोजाना इंसुलिन के इंजेक्शन लेने की जरूरत नहीं पड़ती है।
शोधकर्ता मृतक डोनर के शरीर में मौजूद पैनक्रियाज से आइलेट निकालने के लिए खास प्रकार के इंजाइम्स का इस्तेमाल करते हैं। आइलेट काफी नाजुक होते हैं, डोनर के शरीर से आइलेट निकालने के बाद उसे जल्द से जल्द ट्रांसप्लांट करना जरूरी होता है। आइलेट सेल ट्रांसप्लांट के बाद प्रति किलोग्राम बॉडी के वजन के हिसाब से मरीज दस हजार आइलेट रिसीव करता है। इंसुलिन से जुड़ी जटिलता को सुलझाने के लिए मरीज को मुख्य तौर पर दो आइलेट सेल ट्रांसप्लांट की आवश्यकता पड़ती है। कुछ आइलेट सेल ट्रांसप्लांट के लिए सिंगल डोनर पैनक्रियाज के द्वारा ही मरीज का उपचार किया जाता है। तो कुछ में तीन डोनर की जरूरत भी पड़ सकती है।
आइलेट सेल ट्रांसप्लांट की प्रक्रिया को रेडियोलॉजिस्ट करते हैं। एक्स-रे और अल्ट्रासाउंड से देख एक्सपर्ट कैथेटर (catheter-यह एक छोटी प्लास्टिक की ट्यूब होती है) उसे पेट के ऊपरी भाग में लिवर के वेन्स में डालते हैं। ऐसा कर आइलेट धीरे-धीरे कैथेटर से होते हुए लिवर में चला जाता है। इस दौरान मरीज को एनेस्थीसिया देकर बेहोश रखा जाता है। कुछ मामलों में सर्जन आइलेट सेल ट्रांसप्लांट को पूरा करने के लिए मरीज को जेनरल एनेस्थीसिया देते हुए छोटा चीरा लगा उपचार करते हैं। डोनर के शरीर से आइलेट को निकाल उसके लिवर में सुरक्षित रखते है। फिर ट्रांसप्लांट की प्रक्रिया पूरी की जाती है। एक बार ट्रांसप्लांटेशन की प्रक्रिया पूरी होने पर बीटा सेल्स इंसुलिन रिलीज करना शुरू कर देते हैं।
ट्रांसप्लांट के बाद ही आइलेट इंसुलिन रिलीज करना शुरू कर देते हैं। कुछ मामलों में आइलेट को नए ब्लड वैसल्स के साथ काम करने को लेकर कुछ समय लगता है, फिर वो सामान्य तरीके से अपना काम करते हैं वहीं इंसुलिन रिलीज कर पाते हैं। आइलेट सेल ट्रांसप्लांट के बाद आपका डॉक्टर ब्लड ग्लूकोज लेवल की जांच के लिए टेस्ट कराने को कहते हैं, वहीं मरीज को तबतक इंसुलिन दिया जाता है जबतक आइलेट पूरी तरह से काम नहीं करने लगते हैं।
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आइलेट सेल ट्रांसप्लांट के लाभ और जोखिम पर नजर
- आइलेट सेल ट्रांसप्लांट के लाभ : आइलेट सेल ट्रांसप्लांट इसलिए किया जाता है ताकि आइलेट का प्रत्यारोपण कर मरीज के ब्लड ग्लूकोज लेवल को बिना इंसुलिन इंजेक्शन के सामान्य रखा जा सके। ऐसा कर मरीज के ग्लूकोज कंट्रोल में इजाफा किया जाता है वहीं उन्हें हायपोग्लाइसीमिया से बचाया जाता है। डायबिटीज में बल्ड ग्लूकोज लेवल को सामान्य रख डायबिटीज के साथ, हार्ट डिजीज, किडनी डिजीज, नर्व और आई डैमेज जैसी जटिलताओं को रोका जा सकता है। आइलेट सेल ट्रांसप्लांट सफल रहता है तो उस कारण इस प्रकार की बीमारी होने की संभावना काफी कम रहती है।
- आइलेट सेल ट्रांसप्लांट के रिस्क फैक्टर : आइलेट सेल ट्रांसप्लांट के काफी रिस्क हैं। जो भी मरीज यह ट्रीटमेंट करवाने की सोच रहे हैं उन्हें पहले डॉक्टरी सलाह लेनी चाहिए। उसके बाद ही उन्हें आगे की कार्रवाई करनी चाहिए। पहला जोखिम यह रहता है कि ट्रांसप्लांट सफल होगा या नहीं, दूसरा, ब्लीडिंग होना, रक्त के थक्के जमना और इम्यूनोस्प्रेसिव दवा का साइड इफेक्ट से जुड़ा है। लेकिन ज्यादातर मामलों में देखा है कि वैसे लोग जो दो आइलेट सेल ट्रांसप्लांट की प्रक्रिया से गुजरते हैं, उनका आइलेट सामान्य रूप से काम करने लगता है, वहीं कुछ लोगों को तीन आइलेट सेल ट्रांसप्लांट की आवश्यकता पड़ती है। कुल मिलाकर कहा जाए तो मौजूदा समय में आइलेट सेल ट्रांसप्लांट काफी इफेक्टिव है। लेकिन वर्तमान में टाइप 1 मधुमेह के साथ हर किसी का इलाज करने के लिए पर्याप्त मात्रा में पैनक्रियाज डोनर नहीं है।
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डायबिटीज से ग्रसित मरीजों का ही होता है इलाज
शरीर में डायबिटीज की बीमारी तब होती है, जब हमारा शरीर पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन नहीं बना पाता या फिर इंसुलिन का इस्तेमाल सही तरह से नहीं कर पाता। कुछ मामलों में दोनों ही कारणों से डायबिटीज की बीमारी होती है। ऐसे में रक्त में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ जाती है। डायबिटीज गंभीर बीमारी में से एक है। यदि इसका समय पर उपचार न किया जाए, तो यह जानलेवा साबित हो सकती है। लंबे समय तक बीमारी, उपचार नहीं कराने, डॉक्टरी सलाह का पालन नहीं करने या समय पर दवाईयों आदि का सेवन नहीं करने पर शरीर के अन्य अंग प्रभावित हो सकते हैं। डायबिटीज के कारण आंखों से जुड़ी बीमारी तक हो सकती है, जैसे ब्लाइंडनेस। वहीं हार्ट डिजीज, किडनी फेल्योर, अल्सर, नर्व डैमेज जैसी गंभीर बीमारी हो सकती है। आइलेट सेल ट्रांसप्लांट डायबिटीज से ग्रसित मरीजों को ठीक करने के लिए किया जाता है, जिससे मरीज को इंसुलिन पर निर्भर नहीं रहना पड़ता।
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टाइप 1 डायबिटीज के मरीज आइलेट सेल ट्रांसप्लांट को लेकर लें सलाह
टाइप 1 डायबिटीज की बीमारी से ग्रसित लोगों के शरीर में इंसुलिन नहीं बन पाता है, इंसुलिन की मदद से ही ग्लूकोज रक्तकोशिकाओं में जाते हैं जिससे शरीर को एनर्जी मिलती है, लेकिन इस बीमारी के केस में ऐसा नहीं होता है। यह एक ऑटो इम्यून डिजीज है, इसके तहत हमारा शरीर बीटा सेल्स को भांपता है (बीटा सेल्स इंसुलिन का उत्पादन करते हैं, यह पैनक्रियाज के आइलेट में पाए जाते हैं), यह आइलेट को बाहरी पदार्थ के रूप में देखता है, इसलिए हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता आइलेट को मार देती है। टाइप 1 डायबिटीज की बीमारी से ग्रसित लोगों में अनुवांशिक कारणों से यह बीमारी होती है। वहीं मौजूदा समय में इस बीमारी से पीड़ित लोगों के आइलेट को ठीक करने का कोई तरीका इजात नहीं हुआ है। वहीं आइलेट सेल ट्रांसप्लांट को लेकर डॉक्टरी सलाह ले सकते हैं।
वैसे लोग जिन्हें टाइप 1 डायबिटीज की बीमारी होती है उनमें वैस्कुलर संबंधी बीमारी होने की संभावनाएं ज्यादा रहती है। ऐसे लोगों को डायबिटिक रेटिनोपैथी हो सकती है। यह आंखों से जुड़ा विकार है, इस बीमारी के होने की वजह से लोगों को देखने में परेशानी होती है, खराब विजन के साथ अंधापन हो सकता है। वहीं डायबिटीज न्यूरोपैथी भी हो सकती है। यह बीमारी किडनी से जुड़ी बीमारी है, इसके कारण किडनी फेल्योर हो सकता है। इसलिए जरूरी है कि इस बीमारी से पीड़ित मरीजों को जल्द से जल्द डॉक्टरी सलाह लेनी चाहिए। वहीं डॉक्टरी सलाह के अनुसार ही शरीर में इंसुलिन का पर्याप्त डोज लेना चाहिए, ताकि इस बीमारी की जटिलताओं से बचा जा सके।
सामान्य तौर पर न तरीकों से भी होता है उपचार
आइलेट सेल ट्रांसप्लांट न तो आसान है और न ही हर कोई करा सकता है, क्योंकि डोनर की काफी कमी है। ऐसे में डायबिटीज टाइप 1 की बीमारी से ग्रसित लोगों का इलाज इंसुलिन थेरेपी के साथ इंजेक्शन, इंसुलिन पंप की मदद से उनको इंसुलिन का डोज देकर जान बचाई जाती है। लेकिन इसकी कुछ कमियां है, इसके द्वारा इंसुलिन की खुराक लेने से ब्लड ग्लूकोज लेवल को मेनटेन करना थोड़ा मुश्किल होता है, वहीं यह इलाज खर्चीला भी होता है। इस लिए जरूरी है कि ब्लड ग्लूकोज लेवल को मेनटेन रखने के लिए एक्सपर्ट की मदद ली जाए।
हायपोग्लाइसीमिया न हो इसलिए करा सकते हैं सेल ट्रांसप्लांट
ब्लड ग्लूकोज लेवल के इम्बैलेंस से जुड़ी समस्या झेल रहे लोगों को हायपोग्लाइसीमिया की बीमारी होने की संभावना ज्यादा रहती है। वहीं कई लोगों में देखा गया है कि वो ब्लड ग्लूकोज लेवल से संबंधित लक्षणों को नजरअंदाज करते हैं। इस कारण उन्हें हायपोग्लाइसीमिया की बीमारी हो सकती है।
इसलिए जरूरी है कि इसके लक्षणों पर ध्यान देकर डॉक्टरी सलाह लेनी चाहिए। यदि इलाज न किया गया तो यह बीमारी भी जानलेवा साबित हो सकती है। वैसे मरीज जो डॉक्टरी सलाह लेते हैं, कुछ दवा का सेवन कर इस बीमारी से निजात पा सकते हैं। कुछ लोग जो टाइप 1 डायबिटीज की बीमारी से ग्रसित होते हैं वो रात में सोने से पहले अलार्म लगाकर सोते हैं, वहीं रात में कई बार उठते हैं। उन्हें इस बात का डर रहता है कि सोते हुए कहीं उन्हें भयावह हाइपोग्लाइसेमिक का अटैक न आ जाए। वैसे मरीजों को आइलेट सेल ट्रांसप्लांट की सलाह दी जाती है। इसलिए लिए उन्हें उचित परामर्श लेने को कहा जाता है।
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ऑपरेशन सफल हो इसलिए दी जाती है दवा, इसके हैं साइड इफेक्ट्स
किसी भी अंग प्रत्यारोपण के साथ एक्सपर्ट मरीज को कुछ दवा का सुझाव देते हैं, ताकि उसका सेवन कर वो अपने शरीर में नए अंग को सामान्य तौर पर ढाल सकें। डोनर से जिसके शरीर में अंग लगाया जा रहा है वो शरीर उसे रिजेक्ट न करे, इसलिए एक्सपर्ट दवा सुझाते हैं। वहीं हमारे शरीर का इम्यून सिस्टम इस हिसाब से बना है कि बाहर से आने वाले बैक्टीरिया, वायरस और टिशू के साथ आइलेट को भी नष्ट कर सकता है। ऐसे में ऑटोइम्यून, जिसने पहले आइलेट पर हमला किया था, संभव है कि वो फिर आइलेट पर हमला कर सकते हैं। इसलिए मरीज को इम्यूनोसप्रेसेंट ड्रग्स दिया जाता है। यह ड्रग्स ऑपरेशन के बाद दिया जाता है, ताकि आइलेट सेल ट्रांसप्लांट सफल हो।
इन ड्रग्स का सेवन करने से मरीज को कुछ प्रकार के कैंसर होने की संभावना रहती है। वहीं इन दवा का सेवन करने के कारण छोटे से लेकर गंभीर साइड इफेक्ट्स भी हो सकती है। जिन्होंने आइलेट सेल ट्रांसप्लांट करवाया है उनमें कुछ लोगों में देखा गया है कि साइड इफेक्ट के कारण उन्होंने जैसे ही दवा का सेवन बंद किया, नए ट्रांसप्लांट किए आइलेट ने भी उसी के साथ काम करना भी बंद कर दिया। जरूरी है कि आइलेट सेल ट्रांसप्लांट को लेकर मरीज इन जोखिमों को जान लें, फिर इलाज करवाए।
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सेल ट्रांसप्लांट के बाद दी जाती है यह दवा
द एडमोनटन प्रोटोकॉल के अनुसार मरीज को इम्यूनोप्रेसिव ड्रग्स दी जाती है, इसके तहत उन्हें एंटी रिजेक्शन ड्रग्स दी जाती है, जिसमें
- डेक्लीजुमैब (जेनपैक्स)- Daclizumab (Zenapax)
- सिरोलिमस ( Sirolimus (Rapamune)
- टैक्रोलिमस (प्रोग्राफ) – Tacrolimus (Prograf)
डेक्लीजुमैब दवा आइलेट सेल ट्रांसप्लांट के तुरंत बाद मरीज को दी जाती है, वहीं कुछ दिनों के बाद जब आइलेट सामान्य तौर पर काम करने लगता है तो इस दवा को नहीं दिया जाता है। सिरोलिमस और टेक्रोलिमस दवा इसलिए दी जाती है ताकि मरीज का इम्यून सिस्टम आइलेट सेल ट्रांसप्लांट के तहत आइलेट को किसी प्रकार का नुकसान न पहुंचाए। वहीं यह दवा मरीज को जीवन भर खानी पड़ सकती है ताकि आइलेट सामान्य रूप से जिंदगी भर काम करे।
इन दवाओं का सेवन करने से साइड इफेक्ट हो सकते हैं, वहीं लंबे समय तक इसका सेवन करने से क्या परिणाम होता है यह भी शोध का विषय है। लेकिन इम्यूनोसप्रेसिव ड्रग्स का सेवन करने के तुरंत बाद होने वाले साइड इफेक्ट में मरीज को यह समस्याएं हो सकती हैं, जैसे
- मुंह में घाव
- गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल समस्या
- पेट संबंधी परेशानी
- डायरिया
- ब्लड कोलेस्ट्रोल लेवल का एकाएक बढ़ना
- हाइपरटेंशन
- एनीमिया
- थकान
- व्हाइट ब्लड सेल्स काउंट का घटना
- किडनी फंक्शन का सामान्य रूप से काम न करना
- बैक्टीरियल और वायरल इंफेक्शन का खतरा
- ट्यूमर और कैंसर की संभावनाएं
मौजूदा समय में शोधकर्ता एडमॉन्टन प्रोटोकॉल को लेकर शोध कर रहे हैं। वहीं इस समस्या को लेकर नई दवा के इस्तेमाल को लेकर भी शोध कर रहे हैं, ताकि सफलतापूर्वक ट्रांसप्लांट को अंजाम दिया जा सके। ऐसा कर आइलेट सेल ट्रांसप्लांट के जोखिमों को कम किया जा सकता है।
डायबिटीज के बारे में जानने के लिए खेलें क्विज : Quiz : फिटनेस क्विज में हिस्सा लेकर डायबिटीज के बारे में सब कुछ जानें।
आइलेट की कमी बड़ी समस्या
मौजूदा समय में इलाज के लिए डोनर नहीं मिलते हैं, इसलिए आइलेट की कमी के कारण व्यापक पैमाने पर आइलेट सेल ट्रांसप्लांट नहीं हो पाता। वहीं ट्रांसप्लांट को लेकर होने वाली जटिलताओं को लेकर शोधकर्ता अभी भी खोजबीन में जुटे हैं। इसके लिए पिग के आइलेट सेल को जानवरों में ट्रांसप्लांट कर शोध कर रहे हैं। वहीं अलग सेल्स, जैसे स्टेम सेल्स से भी आइलेट निकालने की दिशा में और लैब में आइलेट बनाने को लेकर शोध जारी हैं।
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